सुप्रीम कोर्ट में शरजील इमाम की दलील: ‘सीएए विरोध के चक्का जाम से दंगे का पूर्वानुमान कैसे लगाता?’, पढ़िये पूरी खबर

Supreme Court/Delhi Riots News: सुप्रीम कोर्ट में 2020 के दिल्ली दंगों से जुड़े ‘बड़े साजिश’ मामले में पूर्व जेएनयू छात्र शरजील इमाम ने अपनी जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान महत्वपूर्ण दलीलें पेश कीं। इमाम ने कहा कि उन्होंने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ केवल शांतिपूर्ण चक्का जाम, धरना-प्रदर्शन और विरोध का आह्वान किया था, जिसके बाद भाषण दिए गए थे। उस मामले में उन्हें जमानत भी मिल चुकी है, लेकिन अब उन्हें दंगों से जबरन जोड़ दिया गया है। उन्होंने तर्क दिया, “मैं कैसे पूर्वानुमान लगा सकता था कि दंगे भड़क जाएंगे?” यह दलील दिल्ली हाईकोर्ट के सितंबर 2025 के फैसले के खिलाफ है, जिसमें इमाम समेत नौ आरोपियों की जमानत याचिकाएं खारिज कर दी गई थीं।

सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजरिया शामिल हैं, ने गुरुवार (30 अक्टूबर) को दिल्ली पुलिस की ओर से दाखिल 177 पन्नों के हलफनामे पर सुनवाई की। पुलिस ने इमाम, उमर खालिद, गुलफिशा फातिमा, मीरान हैदर और शिफा-उर-रहमान समेत पांच मुख्य आरोपियों की जमानत का कड़ा विरोध किया। पुलिस का दावा है कि 2020 के फरवरी दंगे कोई स्वतःस्फूर्त हिंसा नहीं थे, बल्कि एक सुनियोजित ‘शासन परिवर्तन ऑपरेशन’ (रिजीम चेंज ऑपरेशन) थे, जिसका उद्देश्य केंद्र सरकार को अस्थिर करना था। पुलिस ने कहा कि सीएए विरोध को ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन’ के नाम पर एक ‘कट्टरपंथी उत्प्रेरक’ के रूप में इस्तेमाल किया गया, ताकि सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ा जा सके और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित हो। विशेष रूप से, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा (फरवरी 2020) के समय हिंसा को तांडव देने की योजना थी, जिससे सीएए को ‘मुस्लिम समुदाय पर पोग्रोम’ के रूप में वैश्विक मुद्दा बनाया जा सके।

इमाम के वकील ने कोर्ट में जोर देकर कहा कि उनके मुवक्किल दंगों के समय हिरासत में थे और दंगे भड़कने की तारीख या जगह से उनका कोई सीधा संबंध नहीं है। उन्होंने दिसंबर 2019 के सीएए विरोधी प्रदर्शनों का हवाला दिया, जहां इमाम ने जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषण दिए थे। इन भाषणों के लिए दिल्ली की एक निचली अदालत ने उन्हें ‘राजद्रोह’ के आरोप में सजा सुनाई, लेकिन बाद में जमानत मिल गई। वकील ने तर्क दिया कि चैट्स या गवाहों के बयानों में हिंसा भड़काने का कोई ठोस सबूत नहीं है, और लंबी हिरासत (पांच वर्ष से अधिक) के आधार पर जमानत दी जानी चाहिए। इमाम की दलीलें सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों से मजबूत होती हैं, जहां कहा गया है कि लंबे समय तक बिना ट्रायल के हिरासत में रखना संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।

दूसरी ओर, दिल्ली पुलिस ने हलफनामे में इमाम को ‘शीर्ष साजिशकर्ता’ करार दिया। पुलिस का कहना है कि इमाम उमर खालिद के ‘शिष्य’ थे और दिसंबर 2019 से ही व्हाट्सऐप ग्रुप्स बनाकर मुस्लिम बहुल इलाकों में चक्का जाम की योजना बनाई गई। 13-15 दिसंबर 2019 को जामिया में हुई हिंसा को इसका पहला चरण बताया गया, जहां पुलिसकर्मियों और संपत्ति को नुकसान पहुंचा। पुलिस ने दावा किया कि इमाम के भाषण ‘विषाक्त’ थे, जो सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाले थे, हालांकि वे सीधे हिंसा का आह्वान नहीं करते थे। हाईकोर्ट ने भी सितंबर 2025 के फैसले में कहा था कि ‘साजिशपूर्ण हिंसा को प्रदर्शन के नाम पर अनुमति नहीं दी जा सकती।’ पुलिस ने इमाम पर यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम) और आईपीसी की धाराओं के तहत आरोप लगाए हैं, जिसमें साजिश, दंगा भड़काना और देश की अखंडता पर हमला शामिल है।

यह मामला 2020 के दिल्ली दंगों से जुड़ा है, जिसमें सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों के दौरान उत्तर-पूर्व दिल्ली में 53 लोगों की मौत हुई और 700 से अधिक घायल हुए। इमाम, खालिद और अन्य को ‘मास्टरमाइंड’ बताते हुए यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर को नोटिस जारी किया था और पुलिस से जवाब मांगा था। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने पुलिस पर काउंटर-एफिडेविट दाखिल करने में देरी पर नाराजगी जताई थी।

विपक्षी दलों और मानवाधिकार संगठनों ने इस मामले को ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ करार दिया है। इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (IAMC) ने कहा कि हाईकोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों की अनदेखी करता है। सोशल मीडिया पर भी बहस छिड़ी हुई है, जहां कुछ यूजर्स इसे ‘साजिश का खुलासा’ बता रहे हैं, तो कुछ जमानत की मांग कर रहे हैं।

सुनवाई जारी है, और अगली तारीख पर कोर्ट फैसला ले सकता है। यह मामला न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सवाल उठाता है, बल्कि प्रदर्शन के अधिकार और सांप्रदायिक हिंसा के आरोपों के बीच संतुलन का भी।

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