News: लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर संकट , मीडिया की भूमिका और वर्तमान स्थिति
भारतीय लोकतंत्र में मीडिया को अक्सर “चौथा स्तंभ” माना जाता है, जिसकी पारंपरिक भूमिका नागरिकों को सूचित करना, सार्वजनिक वाद-विवाद को सुविधाजनक बनाना और सरकार तथा अन्य शक्तिशाली संस्थाओं के लिए एक प्रहरी के रूप में कार्य करना है । यह भूमिका एक सूचित और सशक्त नागरिक समाज के निर्माण के लिए केंद्रीय है, जो लोकतांत्रिक शासन के लिए आवश्यक है। हालांकि, हाल के वर्षों में, इस महत्वपूर्ण स्तंभ के समक्ष एक गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है, क्योंकि इसकी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं । जनता का भरोसा कम होने से मीडिया की लोकतांत्रिक भूमिका निभाने की क्षमता बाधित हो रही है, जिससे सार्वजनिक विमर्श की गुणवत्ता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अखंडता पर चिंताएँ बढ़ रही हैं।
मीडिया से घटते भरोसे का अवलोकन
भारत में मीडिया पर जनता के भरोसे में गिरावट विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षणों तथा सूचकांकों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। एडेलमैन ट्रस्ट बैरोमीटर 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत व्यवसायों और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) पर भरोसे के मामले में शीर्ष पर है, लेकिन मीडिया पर विश्वास के मामले में यह चौथे स्थान पर है। वैश्विक स्तर पर, मीडिया को सबसे कम भरोसेमंद संस्थाओं में से एक माना गया है, जिसमें 28 में से 15 देशों में मीडिया पर अविश्वास जताया गया है। 64% लोग पत्रकारों द्वारा जानबूझकर गलत जानकारी फैलाने को लेकर चिंतित हैं, जो सूचना के स्रोतों पर व्यापक अविश्वास को दर्शाता है ।
इसी तरह, रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की डिजिटल समाचार रिपोर्ट- 2023 बताती है कि भारत में समाचारों पर भरोसा 2021 और 2023 के बीच 38% के स्तर पर निष्क्रिय रहा है, जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे कम रैंकिंग में से एक है । यह दर्शाता है कि भारतीय जनता के एक बड़े हिस्से में समाचार माध्यमों के प्रति गहरा संदेह व्याप्त है।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (World Press Freedom Index) में भारत की रैंकिंग भी इस चिंताजनक प्रवृत्ति को रेखांकित करती है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) द्वारा जारी इस सूचकांक में भारत की स्थिति लगातार निम्न या गिरती हुई रही है:
तालिका 1: भारत में प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की रैंकिंग
| वर्ष | भारत की रैंक | स्कोर (यदि उपलब्ध हो) | स्रोत |
|—|—|—|—|
| 2016 | 133वाँ | – | |
| 2021 | 142वाँ | – | |
| 2022 | 150वाँ | – | |
| 2023 | 161वाँ | – | |
| 2024 | 159वाँ | 31.28 | |
| 2025 | 151वाँ / 191वाँ | 32.96 (151वें के लिए) | |
उपरोक्त तालिका में 2025 के लिए भारत की रैंक को लेकर कुछ स्रोतों में विसंगति दिखाई देती है । यह विसंगति स्वयं प्रेस स्वतंत्रता के मूल्यांकन की जटिलता और संभावित राजनीतिकरण को दर्शाती है। विभिन्न संगठन अपनी कार्यप्रणाली या डेटा संग्रह की अवधि के आधार पर भिन्न परिणाम प्रस्तुत कर सकते हैं। यह भिन्नता जनता के बीच भ्रम पैदा कर सकती है और सरकारों या मीडिया संस्थानों को अपनी पसंद के डेटा का उपयोग करके स्थिति को कम आंकने या अतिरंजित करने का अवसर प्रदान कर सकती है। हालांकि, संख्यात्मक उतार-चढ़ाव के बावजूद, समग्र प्रवृत्ति भारत के लिए एक निम्न रैंकिंग की ओर इशारा करती है, जो देश में प्रेस की स्वतंत्रता की गंभीर स्थिति को बनाए रखती है। यह दर्शाता है कि प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति एक स्थिर संख्या नहीं, बल्कि एक गतिशील और विवादित क्षेत्र है, जिसके बावजूद इसका निम्न स्तर चिंता का विषय बना हुआ है।
भरोसा घटने के प्रमुख कारण
राजनीतिक दबाव और सरकारी हस्तक्षेप
भारतीय मीडिया पर जनता का भरोसा घटने का एक प्रमुख कारण राजनीतिक दबाव और सरकारी हस्तक्षेप है। पत्रकारों को अपने पेशेवर कर्तव्यों का पालन करते समय अक्सर हमलों का सामना करना पड़ता है और कई बार उन्हें अपनी जान भी गँवानी पड़ती है । राजद्रोह (IPC धारा 124A) जैसे कानूनों का दुरुपयोग प्रेस की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से खतरे में डालता है, जिसके लिए आजीवन कारावास तक की सज़ा हो सकती है । पत्रकारों को ट्रोलिंग, पुलिस कार्रवाई, मानहानि के मामलों और आयकर ‘सर्वेक्षण’ जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है । डिजिटल मंचों पर पत्रकारों को लक्षित करने वाले हेट स्पीच का व्यापक प्रसार उनकी सुरक्षा और हितों के लिए प्रत्यक्ष खतरा उत्पन्न करता है । जनवरी 2022 से अब तक, एक पत्रकार की मौत हुई है और 13 पत्रकार हिरासत में हैं, जो कार्यस्थल पर पत्रकारों की असुरक्षा को उजागर करता है ।
भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अक्सर सरकार के “भोंपू” के रूप में कार्य करता हुआ दिखाई देता है, जो सरकार के कहे और अनकहे निर्देशों को चिल्ला-चिल्ला कर दोहराता रहता है । न्यूज़ चैनल अक्सर लोगों को सरकार द्वारा की गई गलतियों से विचलित करने के लिए विभिन्न विषयों पर अनावश्यक बहस दिखाते हैं, जिससे मूल मुद्दों से ध्यान भटक जाता है । कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान, बड़े मीडिया संस्थानों ने आर्थिक नुकसान और स्वास्थ्य व्यवस्था के ढह जाने के लिए सरकार को सीधे जिम्मेदार नहीं ठहराया, बल्कि इसे एक वैश्विक दैवीय आपदा के रूप में पेश किया । आलोचनात्मक ट्वीट्स पर ट्विटर की सेंसरशिप और सरकार समर्थक चैनलों द्वारा ऑक्सीजन की कमी के लिए किसानों के विरोध प्रदर्शन को दोषी ठहराने जैसे उदाहरण भी सामने आए, जिससे मीडिया पर जन विश्वास प्रभावित हुआ । सोनम वांगचुक के जलवायु अनशन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को भी बड़े समाचार चैनलों द्वारा उचित कवरेज नहीं दी गई, जबकि यह लद्दाख की संवेदनशील पारिस्थितिकी और मूल संस्कृति की रक्षा करने की आवश्यकता पर जोर देता था ।
ये खतरे, चाहे वे शारीरिक हों या कानूनी, पत्रकारों के बीच एक व्यापक “चिलिंग इफ़ेक्ट” पैदा करते हैं। पत्रकार, अपनी सुरक्षा और आजीविका के डर से, संवेदनशील विषयों या असहमतिपूर्ण दृष्टिकोणों पर रिपोर्टिंग करने से हिचकते हैं । यह आत्म-सेंसरशिप स्वतंत्र पत्रकारिता की नींव को कमजोर करती है। जब पत्रकार स्वतंत्र रूप से और निडर होकर रिपोर्ट नहीं कर पाते, तो जनता को वास्तविकता का एक क्यूरेटेड, अक्सर पक्षपातपूर्ण संस्करण प्राप्त होता है। इससे सूचना के स्रोत पर से भरोसा उठ जाता है, और मीडिया की प्रहरी के रूप में कार्य करने की क्षमता गंभीर रूप से प्रभावित होती है , जिससे अंततः लोकतंत्र कमजोर होता है।
कॉर्पोरेट स्वामित्व और व्यावसायिक हित
मीडिया पर जनता के भरोसे में गिरावट का एक और महत्वपूर्ण कारण कॉर्पोरेट स्वामित्व का बढ़ता प्रभाव और व्यावसायिक हितों का प्रभुत्व है। भारत में मीडिया का व्यवसाय मॉडल प्रत्यक्ष रूप से सरकार या परोक्ष रूप से निगमों से मिलने वाले विज्ञापनों पर अत्यधिक निर्भर है । यह निर्भरता बड़े मीडिया संगठनों को भारी सरकारी दबाव में रखती है, क्योंकि भारत सरकार उनके लिए सबसे बड़े विज्ञापनदाताओं में से एक है । आज मीडिया किसी भी अन्य उद्योग की तरह एक लाभ से संचालित क्षेत्र बन गया है, जहाँ बैलेंस शीट खोजी या संपादकीय रिपोर्ट की तुलना में अधिक महत्व रखती है । बेनेट कोलमैन एंड कंपनी के निदेशक विनीत जैन ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वे अब केवल अखबार व्यवसायी नहीं हैं, बल्कि “महज़ विज्ञापन व्यवसाय” हैं । इस बदलाव के परिणामस्वरूप, संपादकों ने अखबार के पृष्ठों पर अपना नियंत्रण खो दिया है और मालिक या सीईओ के अधीन हो गए हैं; ‘कॉर्पोरेट’ प्रबंधक और ‘मार्केटिंग’ प्रबंधक ब्यूरो प्रमुखों और संवाददाताओं से अधिक शक्तिशाली बन गए हैं ।
“पेड न्यूज़” की समस्या, जहाँ राजनीतिक दलों से पैसे लेकर अनुकूल खबरें प्रकाशित की जाती हैं या नकारात्मक खबरों को छिपाया जाता है, पत्रकारिता की अखंडता को सीधे प्रभावित करती है । वर्ष 2014 के आम चुनावों के दौरान पेड न्यूज़ का एक प्रमुख उदाहरण सामने आया, जिसने मीडिया की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े किए । कॉर्पोरेट संस्थाओं का मीडिया संगठनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है, जिससे पत्रकारिता की निष्पक्षता कम होती है । मीडिया स्वामित्व कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो गया है, जिससे दृष्टिकोणों की विविधता की कमी उत्पन्न हो सकती है और अभिव्यक्ति की बहुलता सीमित हो सकती है । क्रॉस स्वामित्व भी एक बढ़ती प्रवृत्ति है, जहाँ एक ही क्षेत्र में समान सामग्री संपत्ति को दूसरे सेक्टर के माध्यम से बढ़ावा दिया जाता है, जिससे हितों का टकराव पैदा होता है ।
इस स्थिति को नियामक ढांचे के अभाव से और बल मिलता है। देश में कोई राष्ट्रीय मीडिया नीति नहीं है, और लगभग 15 साल पहले बनाए गए ‘ब्रॉडकास्ट बिल’ को अभी तक पारित नहीं किया गया है। स्वामित्व और क्रॉस स्वामित्व के मुद्दों, विलय और अधिग्रहण को देखने के लिए एक नियामक संस्था की सख्त आवश्यकता है ।
यह वित्तीय निर्भरता एक विरोधाभास पैदा करती है जिसे “व्यावसायीकरण-विश्वसनीयता विरोधाभास” कहा जा सकता है। जब विज्ञापनदाता या मालिक मीडिया के प्राथमिक हितधारक बन जाते हैं, तो संपादकीय स्वतंत्रता और खोजी रिपोर्टिंग का महत्व कम हो जाता है । मीडिया को ऐसे समाचार प्रकाशित करने पड़ते हैं जो उनके व्यावसायिक हितों के अनुरूप हों, जिससे खबरों की निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता पर सवाल उठते हैं । यह विरोधाभास सीधे जनता के भरोसे को कम करता है, क्योंकि दर्शक और पाठक मीडिया को सत्य के बजाय कॉर्पोरेट या राजनीतिक एजेंडा की सेवा करते हुए देखते हैं। लंबे समय में, यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को कमजोर करता है, क्योंकि यह अपनी स्वतंत्र और निष्पक्ष सूचना प्रदान करने की क्षमता खो देता हैं। पत्रकारिता के गिरते मानक और सनसनीखेज रिपोर्टिंग
भारतीय मीडिया में पत्रकारिता के मानकों में गिरावट और सनसनीखेज रिपोर्टिंग की बढ़ती प्रवृत्ति भी जनता के भरोसे को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दुर्भाग्य से, पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता के मानकों में गिरावट आई है, जिससे वस्तुनिष्ठ जानकारी प्राप्त करना मुश्किल हो गया है । समाचारों को लुभावना या विचारों से प्रभावित नहीं होना चाहिए, लेकिन अब खबरों में विचार मिश्रित किए जा रहे हैं और समाचारों का संपादकीयकरण होने लगा है, जिससे एक अस्वास्थ्यकर प्रवृत्ति विकसित हुई है ।
टेलीविजन चैनलों में दृश्यों की भरमार दर्शक को सोचने का अधिक अवसर नहीं देती, जिससे वे केवल सूचनाएं प्राप्त करते हैं और उन पर विचार नहीं करते। हर क्षण दृश्य बदलता जाता है, इसलिए दर्शक में विचार की प्रक्रिया बहुत धीमी गति से चलती है । छोटे या सांध्यकालीन समाचार पत्रों का व्यापार अक्सर सनसनी पर टिका होता है, और उनके पहले पन्ने की लीड हमेशा सनसनीखेज होती है । “ब्रेकिंग न्यूज़” की होड़ में गहन विश्लेषण की कमी होती है, जिससे खबरों की गहराई और संदर्भ अक्सर छूट जाते हैं ।
खबरों को अक्सर पक्षपातपूर्ण रवैये के साथ प्रस्तुत किया जाता है, जिससे प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और सच्चाई दब जाती है । कभी-कभी खबरें आंशिक जानकारी या एक पक्षीय दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत की जाती हैं, जिससे पूरा संदर्भ और सच्चाई छूट सकती है । पत्रकारिता में गुणवत्ता की कमी है, और कम प्रशिक्षित तथा अनुभवहीन पत्रकारों के कारण तथ्यों की जांच और सटीकता का अभाव होता है, जिससे असत्यापित और गलत सूचनाओं का प्रसार होता है । व्यावसायिक दबावों के कारण, मालिक और प्रबंधक राजस्व और टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) के दबाव में सनसनीखेज समाचारों को प्राथमिकता देते हैं, जिससे तथ्यात्मक सटीकता और निष्पक्षता की कमी होती है ।
“मीडिया ट्रायल” की प्रवृत्ति भी बढ़ी है, जहाँ मीडिया आपराधिक मामलों की निष्पक्ष जांच को नुकसान पहुंचाता है। सुशांत सिंह राजपूत के मामले में मीडिया ने सनसनीखेज कवरेज की, जिसमें एक दुखद आत्महत्या को एक निरंतर जारी जांच में बदल दिया गया, जिसे दिन-प्रतिदिन लाइव स्ट्रीम किया गया। वास्तविक घटना पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, चर्चा का विषय एक अभिनेत्री बनी, जिसे खलनायिका के रूप में चित्रित किया गया, जिससे बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी आपराधिक मामले की निष्पक्ष जांच को हुए नुकसान को स्वीकार किया । इसके अतिरिक्त, समाज में घटित होने वाली सकारात्मक खबरें मीडिया से बाहर की चीज हो गई हैं, और सिर्फ नकारात्मक खबरें ही समाज के समक्ष पहुंचाई जा रही हैं ।
यह स्थिति “टीआरपी-संचालित पत्रकारिता” के एक दुष्चक्र को दर्शाती है। मीडिया हाउस उच्च टीआरपी या पठन संख्या के लिए सनसनीखेजता को प्राथमिकता देते हैं, जिससे अधिक विज्ञापन राजस्व आता है। यह व्यावसायिक प्रोत्साहन तथ्यात्मक सटीकता, गहन विश्लेषण और संतुलित रिपोर्टिंग को कम कर देता है। जनता, पक्षपातपूर्ण या सतही सामग्री के संपर्क में आकर, अपना भरोसा खो देती है। भरोसे की यह हानि तब मीडिया को ध्यान आकर्षित करने के लिए और भी अधिक सनसनीखेज बनने के लिए मजबूर करती है, जिससे मानकों में और गिरावट आती है। यह अंततः सूचना के विश्वसनीय स्रोत के रूप में मीडिया की भूमिका को कमजोर करता है और एक गलत सूचना वाले सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देता है|
डिजिटल मीडिया का उदय और फेक न्यूज़ का प्रसार
डिजिटल मीडिया के तेजी से उदय ने समाचार उपभोग के पैटर्न को मौलिक रूप से बदल दिया है और इसके साथ ही फेक न्यूज़ के प्रसार की एक गंभीर चुनौती भी लाई है, जिससे पारंपरिक मीडिया पर भरोसा और कम हुआ है। भारतीय पारंपरिक समाचार वेबसाइटों से दूर जाकर ऑनलाइन समाचार के अपने प्राथमिक स्रोत के रूप में तेजी से सर्च इंजन और मोबाइल समाचार एग्रीगेटर्स (43%) की ओर रुख कर रहे हैं । केवल 12% लोग प्रत्यक्ष स्रोतों (समाचार पत्रों) से समाचार पढ़ना पसंद करते हैं, जबकि 28% समाचार पढ़ने के लिए सोशल मीडिया पसंद करते हैं । लोग समाचार सामग्री को पढ़ने के बजाय देखना या सुनना पसंद करते हैं, जो डिजिटल प्लेटफॉर्म की प्रकृति के अनुरूप है ।
भारत गलत सूचना के लिए सबसे अधिक संवेदनशील देशों में से एक है (WEF ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट 2024) । सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे फेसबुक और व्हाट्सएप ‘फेक न्यूज़’ प्रसारण के प्रमुख स्रोत बन गए हैं, जिसके कारण अक्सर सड़क पर दंगे और मॉब लिंचिंग जैसी गंभीर घटनाएं देखने को मिलती हैं । फेक न्यूज़ या तो गलत सूचना (जानबूझकर नुकसान पहुंचाने के लिए गलत) या भ्रामक सूचना (अनजाने में साझा की गई) हो सकती है, जिसका उद्देश्य समाज में भ्रम और संघर्ष उत्पन्न करना होता है । AI-जनित कंटेंट और डीपफेक जैसी उन्नत तकनीकें फर्जी खबरों का पता लगाना और भी कठिन बनाती हैं, जिससे सत्य और कल्पना के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है । भारत में फर्ज़ी खबरों से निपटने के लिए कोई विशेष कानून का अभाव इसके प्रसार को बढ़ावा देता है ।
समाचार स्रोत के रूप में सोशल मीडिया का प्रभाव राजनीतिक ध्रुवीकरण में योगदान कर सकता है, जिससे व्यक्ति पक्षपातपूर्ण सूचना के संपर्क में आ सकते हैं । अनियंत्रित डिजिटल प्रभाव सामाजिक विभाजन को गहरा कर सकता है और लोकतांत्रिक संवाद को प्रभावित कर सकता है । समाचारों के लिए सर्च इंजन और सोशल मीडिया पर निर्भरता का मतलब है कि व्यक्ति एल्गोरिदम द्वारा निर्धारित सामग्री के संपर्क में आते हैं, जिससे विविध दृष्टिकोणों एवं महत्त्वपूर्ण समाचारों का प्रदर्शन सीमित हो सकता है ।
समाचार उपभोग में पारंपरिक स्रोतों से डिजिटल प्लेटफॉर्म की ओर यह महत्वपूर्ण बदलाव, और फेक न्यूज़ का व्यापक प्रसार, इस बात का संकेत है कि लोग सत्य और विश्वसनीयता को कैसे समझते हैं, इसमें एक मौलिक परिवर्तन आया है। पारंपरिक मीडिया, जिसके पास ऐतिहासिक रूप से ज्ञानमीमांसीय अधिकार (सत्य और विश्वसनीय क्या है, इसे परिभाषित करने का अधिकार) था, अब दरकिनार किया जा रहा है। डिजिटल प्लेटफॉर्म की विकेन्द्रीकृत प्रकृति, एल्गोरिदम और कम डिजिटल साक्षरता के साथ मिलकर, गलत सूचना को तेजी से और बिना चुनौती के फैलने देती है। यह न केवल सभी समाचार स्रोतों (पारंपरिक सहित, क्योंकि वे अक्सर डिजिटल गलत सूचना से प्रभावित होते हैं) में विश्वास को कम करता है, बल्कि सार्वजनिक विमर्श को भी मौलिक रूप से अस्थिर करता है, जिससे सूचित निर्णय लेना और एक स्वस्थ लोकतंत्र बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। जनता की सत्य को असत्य से अलग करने की क्षमता में कमी एक महत्वपूर्ण दीर्घकालिक निहितार्थ है ।
लोकतंत्र का कमजोर होना और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर नकारात्मक असर
मीडिया पर जनता के घटते भरोसे का भारतीय लोकतंत्र पर दूरगामी और बहुआयामी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। पक्षपातपूर्ण मीडिया भारत के लोकतंत्र के समक्ष एक वास्तविक खतरा है । यह सूचना के निष्पक्ष स्रोत के रूप में मीडिया में जनता के विश्वास को समाप्त करता है, जिससे लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति व्यापक निराशा और उदासीनता उत्पन्न होती है । यदि लोग मीडिया पर भरोसा नहीं करते हैं, तो वे सही जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते। सही जानकारी के बिना, नागरिक अपने नेताओं, नीतियों या सामाजिक मुद्दों के बारे में सूचित निर्णय नहीं ले सकते। यह नागरिकों को सरकार के कार्यों पर प्रभावी नियंत्रण रखने से रोकता है ।
यह स्थिति एक दुष्चक्र की ओर ले जाती है जिसे “अविश्वास और लोकतांत्रिक क्षय का दुष्चक्र” कहा जा सकता है। मीडिया में अविश्वास एक कम सूचित और अधिक ध्रुवीकृत आबादी को जन्म देता है, जो बदले में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं (जैसे चुनाव और सार्वजनिक विमर्श) को हेरफेर के प्रति अधिक संवेदनशील और कम प्रभावी बनाता है । जनमत को प्रभावित करके और मतदान व्यवहार को प्रभावित करके, यह चुनाव प्रक्रियाओं की अखंडता को कमजोर करता है । यह लोकतंत्र में मीडिया की प्रहरी (वॉचडॉग) भूमिका को बाधित करता है, जिससे सरकार और अन्य शक्तिशाली संस्थाओं की जवाबदेही कम होती है । यह आगे चलकर लोकतांत्रिक संस्थाओं, न केवल मीडिया, में विश्वास को कम करता है, जिससे लोकतांत्रिक क्षय का एक सर्पिल नीचे की ओर बढ़ता है। सामान्यतः पक्षपातपूर्ण मीडिया से लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों का ह्रास होता है । जनतंत्र के तौर पर 75 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी, प्रेस की आजादी का विचार, या उसका न होना, जनता में ज्यादा लोगों को परेशान नहीं करता , जो इस समस्या को और बढ़ा देता है |
जनता की उदासीनता, सामाजिक विभाजन और अशांति
मीडिया पर घटते भरोसे का एक और गंभीर प्रभाव जनता की उदासीनता, बढ़ते सामाजिक विभाजन और संभावित अशांति के रूप में सामने आता है। जनतंत्र के तौर पर 75 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी यह हैरान करने वाली बात है कि प्रेस की आजादी का विचार, या उसका न होना, जनता में ज्यादा लोगों को परेशान नहीं करता । यह उदासीनता सूचना संकट की गंभीरता को तब तक महसूस नहीं करने देती जब तक कि यह सीधे सामाजिक अशांति के रूप में प्रकट न हो।
पारंपरिक समाचार स्रोतों से दूर हटना और सर्च इंजन व सोशल मीडिया पर बढ़ती निर्भरता गलत सूचना तथा फेक न्यूज़ के प्रसार में योगदान कर सकती है, जिससे सार्वजनिक भ्रम, गलत धारणाएँ और यहाँ तक कि सामाजिक अशांति भी उत्पन्न हो सकती है । फेक न्यूज़ और फेक वीडियो के कारण कई जगह सांप्रदायिक हिंसा, हत्या और संपत्तियों को नुकसान पहुंचा है, जो सूचना की कमी से सामाजिक विखंडन तक के मार्ग को दर्शाता है । जब लोग सत्य के साझा स्रोतों पर भरोसा खो देते हैं, तो वे अपने मौजूदा पूर्वाग्रहों की पुष्टि करने वाली जानकारी का उपभोग करते हुए इको चैंबर में चले जाते हैं।
समाचार स्रोत के रूप में सोशल मीडिया का प्रभाव राजनीतिक ध्रुवीकरण में योगदान कर सकता है । पक्षपातपूर्ण मीडिया हाशियाई समुदायों के प्रति असहिष्णुता और मताग्रह को बढ़ावा देकर भारतीय समाज के बहुलवादी परिप्रेक्ष्य को प्रभावित करता है । एक साझा तथ्यात्मक आधार की कमी रचनात्मक संवाद और सामूहिक समस्या-समाधान को मुश्किल बनाती है, जिससे सामाजिक विखंडन और संघर्ष की संभावना बढ़ जाती है। यह केवल व्यक्तिगत गलतफहमी तक सीमित नहीं है; इसके सामूहिक परिणाम होते हैं, जिनमें सामाजिक अशांति और मॉब लिंचिंग जैसी गंभीर घटनाएं शामिल हैं।
पत्रकारों की असुरक्षा और आर्थिक चुनौतियाँ
मीडिया पर घटते भरोसे का एक प्रत्यक्ष परिणाम पत्रकारों की बढ़ती असुरक्षा और उनके सामने आने वाली आर्थिक चुनौतियाँ हैं। पत्रकारों को अपने काम के लिए उत्पीड़न, दमनकारी कानूनों का शिकार होना पड़ता है, और कई बार उन्हें अपनी जान भी गँवानी पड़ती है । ग्रामीण पत्रकार पवन जायसवाल का उदाहरण इस आर्थिक अनिश्चितता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है, जिनकी कैंसर से मृत्यु हो गई क्योंकि वे एक ग्रामीण पत्रकार के तौर पर इलाज के लायक पैसे नहीं कमा पाए । उनकी मृत्यु एक ऐसे तंत्र का परिणाम थी जो पत्रकारों को अपना काम करने के लिए अपराधी बना देता है और उन्हें केवल जीवित रहने लायक आय देता है।
दुनिया भर के मीडिया उद्योग में नौकरियों की कटौती होती जा रही है, जिससे इस पेशे में आर्थिक स्थिरता और भी कम हो गई है । खोजी रिपोर्टिंग, जो लोकतंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, में नियमित रिपोर्टिंग की तुलना में अधिक समय और पैसा लगता है, जो वित्तीय दबाव का सामना कर रहे छोटे समाचार संगठनों के लिए एक बड़ी चुनौती है ।
यह स्थिति “सत्य-कथाकारों की आर्थिक अनिश्चितता” को उजागर करती है। पत्रकारों की आर्थिक अनिश्चितता कठोर, स्वतंत्र रिपोर्टिंग के लिए एक बाधा पैदा करती है। यदि पत्रकार सत्य की खोज के लिए पर्याप्त वेतन नहीं कमा सकते या वित्तीय बर्बादी का सामना कर सकते हैं, तो नैतिक पत्रकारिता के प्रति प्रतिबद्ध प्रतिभाशाली व्यक्तियों को आकर्षित करना और बनाए रखना तेजी से मुश्किल हो जाता है। यह समाचार की गुणवत्ता और स्वतंत्रता से समझौता करता है, जिससे मानकों में गिरावट और सार्वजनिक भरोसे के क्षरण का एक आत्म-पुष्टि करने वाला चक्र बनता है। यह पत्रकारों को जीवित रहने के लिए कम आलोचनात्मक, अधिक सनसनीखेज, या राजनीतिक रूप से संरेखित रिपोर्टिंग की ओर भी धकेलता है, जिससे मीडिया की समग्र विश्वसनीयता और भी कम हो जाती है।
आगे की राह: विश्वसनीयता बहाल करने के उपाय
भारतीय मीडिया पर जनता का भरोसा बहाल करना एक जटिल कार्य है जिसके लिए बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें मीडिया संस्थानों, सरकार, नागरिक समाज और स्वयं जनता सहित सभी हितधारकों की सक्रिय भागीदारी शामिल है।
मीडिया साक्षरता और नैतिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना
गलत सूचना से संतृप्त वातावरण में, केवल मीडिया को विनियमित करना पर्याप्त नहीं है; नागरिकों को भी अधिक जागरूक और आलोचनात्मक होना चाहिए। व्यक्तियों को समाचार स्रोतों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने तथा गलत सूचना की पहचान करने में मदद के लिए स्कूलों एवं समुदायों में मीडिया साक्षरता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना चाहिए । ये कार्यक्रम नागरिकों को आलोचनात्मक सोच कौशल और विश्वसनीय जानकारी को पहचानने की क्षमता के साथ सशक्त बनाते हैं, जिससे एक अधिक समझदार दर्शक वर्ग बनता है।
पत्रकारिता में विद्यमान नैतिक असंगति से निपटने, मीडिया संगठनों के भीतर पारदर्शिता एवं जवाबदेही को बढ़ावा देने और विधिक सुरक्षा के माध्यम से प्रेस की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी की रक्षा करने के लिये मीडिया साक्षरता एवं नैतिकता प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं । पत्रकारिता के क्षेत्र में बेहतर प्रशिक्षण और मार्गदर्शन की व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि नए पत्रकारों को तथ्यों की जांच और सटीकता के महत्व को सिखाया जा सके । यह बदले में, उच्च गुणवत्ता वाली पत्रकारिता के लिए बाजार दबाव बना सकता है और पक्षपातपूर्ण या सनसनीखेज सामग्री के लिए एक प्रतिसंतुलन के रूप में कार्य कर सकता है, क्योंकि उपभोक्ता बेहतर की मांग करते हैं और विश्वसनीय स्रोतों का समर्थन करते हैं । यह एक स्वस्थ सूचना पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक सक्रिय नागरिक समाज की आवश्यकता को दर्शाता है।
स्वतंत्र और खोजी पत्रकारिता को प्रोत्साहन
जबकि मुख्यधारा का मीडिया पक्षपात और व्यावसायिक दबावों से जूझ रहा है, स्वतंत्र और खोजी पत्रकारिता को प्रोत्साहन देना विश्वसनीयता बहाल करने में महत्वपूर्ण है। स्क्रोल या वायर जैसे स्वतंत्र डिजिटल न्यूज़ संस्थानों ने महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग की है, जो मुख्यधारा के मीडिया द्वारा छोड़े गए शून्य को भरते हैं । ये छोटे डिजिटल न्यूज़ रूम नियामक ढांचे से कम प्रभावित होते हैं, जिससे वे बड़े मीडिया संगठनों की तुलना में अधिक स्वतंत्र होते हैं ।
वैकल्पिक वित्तीय मॉडल जैसे क्राउडफंडिंग, फेलोशिप, अनुदान, सदस्यता और दान पर निर्भरता को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि मीडिया संस्थान विज्ञापनदाताओं और कॉर्पोरेट हितों के दबाव से मुक्त हो सकें । खोजी पत्रकारिता के लिए मीडिया संगठनों की साझेदारी, जैसे ‘इलेक्टोरल बॉन्ड प्रोजेक्ट’ पर ‘न्यूज लॉन्ड्री’, ‘द न्यूज़ मिनट’ और ‘स्क्रॉल’ का सहयोग, संसाधनों को पूल करने और बड़े पैमाने पर जांच करने का एक शानदार तरीका है । छोटे समाचार संगठन हाशिए पर रहने वाले दलित और आदिवासी समूहों की खबरें सामने लाते हैं, जिन्हें मुख्यधारा के मीडिया में जगह नहीं मिलती, जिससे समाज के सभी वर्गों को आवाज मिलती है ।
ये विशिष्ट, पाठक-समर्थित मॉडल स्वतंत्र, विश्वसनीय पत्रकारिता के भविष्य का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। वे मुख्यधारा के मीडिया द्वारा जवाबदेही और गहन रिपोर्टिंग में छोड़े गए शून्य को भरकर एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करते हैं। हालांकि, उनकी सफलता जनता की पत्रकारिता को सीधे वित्त पोषित करने की इच्छा पर निर्भर करती है, जो विज्ञापन-संचालित मॉडल से दूर हट रही है जो समस्याग्रस्त साबित हुआ है। यह समाचार परिदृश्य के संभावित विखंडन का भी संकेत देता है, जहां एक छोटा, समर्पित दर्शक वर्ग उच्च-गुणवत्ता, विशिष्ट रिपोर्टिंग का समर्थन करता है, जबकि मुख्यधारा का मीडिया अपनी विश्वसनीयता खोता रहता है।
नियामक ढाँचे को मजबूत करना और जवाबदेही सुनिश्चित करना
डिजिटल युग में गलत सूचना के तेजी से प्रसार ने मौजूदा नियामक ढाँचों को पीछे छोड़ दिया है। नैतिक उल्लंघनों और गलत सूचना के प्रसारण की दशा में मीडिया आउटलेट्स का उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने हेतु कड़े नियमों तथा तंत्रों की आवश्यकता है । स्वतंत्र मीडिया हितप्रहरियों और लोकपालों को मीडिया सामग्री की निगरानी करने तथा जनता की शिकायतों का समाधान करने का अधिकार दिया जाना चाहिए । पत्रकारों के ऑनलाइन उत्पीड़न के मुद्दे को संबोधित करने के लिए उपाय करने और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता है ।
भारत को एक राष्ट्रीय मीडिया नीति और एक नियामक संस्था की सख्त आवश्यकता है जो स्वामित्व और क्रॉस स्वामित्व के मुद्दों, विलय और अधिग्रहण को देखे । वर्तमान में, सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021; IT अधिनियम 2008 की धारा 66 A; और 1860 की भारतीय दंड संहिता जैसे मौजूदा पहलें हैं । भारतीय प्रेस परिषद (PCI), सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (MIB), समाचार प्रसारण मानक प्राधिकरण (NBSA), प्रसारण सामग्री शिकायत परिषद (BCCC), और इंडियन ब्रॉडकास्ट फाउंडेशन (IBF) जैसे संबंधित प्राधिकारी भी मौजूद हैं । हालांकि, फेक न्यूज़ का निरंतर प्रसार और घटता भरोसा इंगित करता है कि ये मौजूदा तंत्र या तो पुराने हैं, उनमें दम नहीं है, या गलत सूचना के पैमाने और गति को संबोधित करने के लिए अपर्याप्त हैं । यह नियामक अंतराल हानिकारक सामग्री को बिना जांच के फैलने देता है, जिससे जनता का भरोसा और कम होता है और विश्वसनीय समाचारों के लिए खुद को अलग करना मुश्किल हो जाता है। भाषण की स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाने वाला एक व्यापक, दूरदर्शी नियामक ढांचा महत्वपूर्ण है।
तथ्य-जाँच संगठनों और मीडिया संस्थानों के बीच साझेदारी
गलत सूचना के खिलाफ लड़ाई में तथ्य-जाँच संगठनों और मीडिया संस्थानों के बीच साझेदारी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह एक बहु-हितधारक, सहयोगात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता को दर्शाता है, जो एक “डिजिटल प्रतिरक्षा प्रणाली” के रूप में कार्य करता है, क्योंकि कोई भी एक इकाई गलत सूचना से अकेले नहीं लड़ सकती। गलत जानकारी की पहचान करने और उसे सही करने के लिए तथ्य-जाँच संगठनों, सरकारी एजेंसियों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के बीच साझेदारी को प्रोत्साहित करना चाहिए । तथ्य-जाँच, जब प्लेटफॉर्मों में एकीकृत होती है और आधिकारिक निकायों द्वारा समर्थित होती है, तो गलत जानकारी के प्रसार को पहचानने और रोकने में मदद कर सकती है।
यह सूचना पारिस्थितिकी तंत्र की अखंडता की रक्षा करता है और, अप्रत्यक्ष रूप से, विश्वसनीय स्रोतों में विश्वास बहाल करने में मदद करता है। हालांकि, ऐसी प्रणाली की प्रभावशीलता उसकी स्वतंत्रता और तथ्य-जाँचकर्ताओं में जनता के भरोसे पर निर्भर करती है। इसके अतिरिक्त, भारत को ऑस्ट्रेलिया के समान कानून बनाने की संभावना तलाशनी चाहिए जो डिजिटल प्लेटफॉर्मों को उनकी सामग्री का उपयोग करने के लिए स्थानीय मीडिया आउटलेट्स को भुगतान करने के लिए बाध्य करता है, जिससे पारंपरिक मीडिया को वित्तीय सहायता मिल सके और उनकी गुणवत्ता बनाए रखने में मदद मिल सके ।
निष्कर्ष
भारतीय मीडिया पर जनता का भरोसा लगातार कम हो रहा है, जो एक बहु-आयामी समस्या है जिसके गहरे सामाजिक और लोकतांत्रिक निहितार्थ हैं। राजनीतिक दबाव और पत्रकारों के उत्पीड़न, कॉर्पोरेट स्वामित्व और विज्ञापन पर निर्भरता से उत्पन्न व्यावसायिक हित, पत्रकारिता के गिरते मानक और सनसनीखेज रिपोर्टिंग की प्रवृत्ति, तथा डिजिटल मीडिया के उदय के साथ फेक न्यूज़ का बेलगाम प्रसार, ये सभी कारक मिलकर मीडिया की विश्वसनीयता को erode कर रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अखंडता पर सवाल उठ रहे हैं, सामाजिक विभाजन बढ़ रहा है, और पत्रकारों को गंभीर आर्थिक और सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
एक मजबूत और विश्वसनीय मीडिया एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य है। इसकी बहाली के लिए केवल मीडिया संस्थानों द्वारा आत्म-चिंतन ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सरकार, नियामक निकायों, नागरिक समाज और स्वयं जनता सहित सभी हितधारकों के सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। मीडिया साक्षरता को बढ़ावा देना, स्वतंत्र और खोजी पत्रकारिता को वित्तीय और कानूनी रूप से समर्थन देना, नियामक ढाँचे को मजबूत करना, और गलत सूचना से लड़ने के लिए तथ्य-जाँच संगठनों के साथ साझेदारी करना, ये सभी कदम एक ऐसे सूचना पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण कर सकते हैं जहाँ सत्य और सटीकता को प्राथमिकता दी जाए। तभी भारतीय मीडिया अपनी खोई हुई विश्वसनीयता को पुनः प्राप्त कर पाएगा और लोकतंत्र के एक सच्चे प्रहरी के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाएगा।
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