न कोई धर्म न कोई जात केवल एलिग कहते है इनको। हम बात कर रहे है एएमयू यानी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (Aligarh Muslim University) की। जहां से पास आउट लोग अपना धर्म या जात नही बल्कि खुद को केवल एलिग कहते है। अब एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर एक बार फिर से देश भर में चर्चाएं हो रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि सुप्रीम कोर्ट में 7 जजो की संवैधानिक पीठ इस पर सुनवाई कर रही है। 3 दिन की सुनवाई के बाद अब अगली तारीख 23 जनवरी दी गई है। पीठ की अगवाई खुद चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ कर रहे हैं। केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी है कि एएमयू राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है इसलिए अल्पसंख्यक दर्जा नहीं होना चाहिए। जबकि सुप्रीम कोर्ट का रुख आर्टिकल 30 को लेकर बिल्कुल साफ है। सुप्रीम कोर्ट कहना है कि अनुच्छेद 30 का मकसद अल्पसंख्यकों को समाज से अलग अलग कर बंद बस्तियों में रखना नहीं।
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लोगों के लिए मायने नही रखता कि एएमयू एक अल्पसेख्यक सस्थान है या नही। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने आर्टिकल 30 का उल्लेख किया। पीठ ने यह भी विचार किया है कि यदि वह यह मानती है कि अजीज बाशा मामले में फैसला गलत था तो 1981 के संशोधन अधिनियम के प्रावधान को रद्द करने वाले 2006 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर क्या प्रभाव पड़ेगा। 1981 के अधिनियम के जरिए एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा मिला था। हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बाशा पर फैसला गलत था तो इसका तत्काल प्रभाव यह होगा कि एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने से मना करना गलत था। अल्पसंख्यक दर्जा से क्या फर्क पड़ता है या नहीं यह तो अलग बात है। मगर इतना जरूर है कि एएमयू से पास आउट हुए युवाओं को बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी तो मिलती ही है साथ ही एएमयू से पढ़े हुए लोग बड़े-बड़े बिजनेस भी चला रहे हैं। एएमयू में पढ़ने वालों का कोई धर्म नहीं बल्कि एक अलग ही धर्म है उसे एलिग बोलते हैं। अब ऐसा लग रहा है कि धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश हो रही है।
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केंद्र सरकार की ओर से तुषार मेहता ने कहा कि जिस वक्त एएमयू की स्थापना हुई उसे वक्त भी उसे राष्ट्रीय महत्व का बनाया गया था। इसलिए एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा जरूरत नही है। वही एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने का समर्थन करने वालों की याचिकाओं पर बहस कर रहे वकील शादान फरासत कहते हैं कि बाशा का फैसला आने तक एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान माना जाता था। फैसला आने के बाद 1981 में संशोधन में पहले की तरह मांग की गई। इसके बाद मुकदमा चला और आरक्षण के पहलू को छोड़ हमेशा इस पर रोक लगी रही। एडवोकेट फरासत ने कहा कि 1981 में संशोधन पर आपके यथास्थिति के आदेश के कारण यह अल्पसंख्यक संस्थान बना हुआ है। आगे कहते है कि अल्पसंख्यक संस्थान राष्ट्रीय महत्व का संस्थान हो सकता है ऐसा नहीं कि सिर्फ बहुसंख्यक ही राष्ट्रीय महत्व के संस्थान स्थापित कर सकते हैं। अनुच्छेद 30 जिस अधिकार की बात करता है वह पसंद का अधिकार है, यह वह विवेक है जो अल्पसंख्यकों को उसी तरह के प्रशासन करने के लिए दिया जाता है। जिसे वह उचित समझते हैं। खैर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी पर लगातार अल्पसंख्यक होने ना होने को लेकर बहस होती आई है। अब 23 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई होगी।
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मगर अब आपको इसके इतिहास में लेकर चलते है
अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में उसे वक्त हुई जब अलीगढ़ मूवमेंट चल रहा था। सर सैयद अहमद खान जिन्होंने मोमडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना अलीगढ़ में की थी, उन्होंने ही इसकी स्थापना की लेकिन 8 जनवरी 1877 में इसका शिलान्यास तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड लिंटन ने किया। हालांकि सर सैयद महिलाओं की मॉडर्न एजुकेशन के पक्ष में नहीं थे, इसीलिए शुरुआती दौर में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में महिलाओं की मॉडर्न शिक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं था। मगर उसके बाद उनके इस मूवमेंट को आगे ले जाने वाले लोगों ने महिलाओं की पढ़ाई लिखाई को भी अहमियत दी और उस पर जोर देने लगे।