दीघा, बिहार की सबसे बड़ी विधानसभा सीटों में से एक है, जहां 4.55 लाख से अधिक मतदाता हैं। इनमें करीब 2.17 लाख महिलाएं हैं, जो कुल मतदाताओं का लगभग आधा हिस्सा हैं।
2015 और 2020 में भाजपा के संजीव चौरसिया ने यहां लगातार जीत हासिल की थी। 2020 में उन्होंने माले के शशि यादव को 46,000 से अधिक वोटों से हराया था। लेकिन अब स्थानीय स्तर पर चौरसिया के खिलाफ ‘एंटी-इनकंबेंसी’ की हवा चल रही है। गोसाईं टोला के निवासी सहदेव कुमार (48) कहते हैं, “10 साल से भाजपा को वोट देते रहे, लेकिन विकास का नामोनिशान नहीं। विधायक केवल चुनाव के समय दिखते हैं।”
वहीं, दुकानदार सुधीर प्रशाद का कहना है, “कचरा हर 15 दिन में एक बार उठता है, सफाई तो सपना है।”
दिव्या गौतम का राजनीतिक सफर छात्र जीवन से शुरू हुआ। पटना विमेंस कॉलेज की पूर्व छात्रा दिव्या ने पत्रकारिता और महिला अध्ययन में एमए किया है। वे यूजीसी-नेट क्वालिफाई हैं और फिलहाल पीएचडी कर रही हैं। 2012 में पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष चुनाव में एआईएसए (माले की छात्र इकाई) की टिकट पर लड़ीं, लेकिन एबीवीपी प्रत्याशी से मामूली अंतर से हार गईं। बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) की 64वीं परीक्षा पास करने के बाद खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग में सप्लाई इंस्पेक्टर बनीं, लेकिन सामाजिक कार्य के लिए नौकरी छोड़ दी। “सरकारी नौकरी में अपनी राय रखने की आजादी नहीं मिलती। एकेडेमिया और एक्टिविज्म ने मुझे आवाज उठाने का मंच दिया,” ऐसा वे बताती हैं।
पटना विमेंस कॉलेज में सहायक प्रोफेसर रहीं दिव्या थिएटर आर्टिस्ट भी हैं। वे राज्य माले जेंडर जस्टिस सेल की सदस्य हैं और महिलाओं के अधिकारों पर सक्रिय हस्तक्षेप करती रहीं।
महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस और माले) की ओर से दीघा सीट माले के खाते में आई है। 13 अक्टूबर को नाम घोषित होते ही सोशल मीडिया पर हलचल मच गई। 15 अक्टूबर को नामांकन दाखिल किया। उनके नामांकन जुलूस में बड़ी संख्या में युवा और महिलाएं शामिल हुईं।
सुशांत सिंह राजपूत से रिश्ते का जिक्र आते ही दिव्या साफ कहती हैं, “वह मेरे भाई थे, लेकिन मैंने कभी उनके नाम का इस्तेमाल नहीं किया। कॉलेज राजनीति में भी नहीं, जब वे टीवी स्टार थे। उनकी मौत का राजनीतिकरण अनैतिक है। मेरी लड़ाई नैतिकता और विवेक पर आधारित है।” 2020 में भाजपा ने सुशांत केस को बिहार चुनाव में मुद्दा बनाने की कोशिश की थी, लेकिन दिव्या इससे दूर रहीं। दीघा में कायस्थ बहुल क्षेत्र है, जहां राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार जैसे अन्य ऊपरी जातियों के साथ यादव समेत ओबीसी मतदाता भी प्रभावी हैं। चौरसिया वैश्य समुदाय से हैं, जबकि दिव्या राजपूत।
दिव्या का कैंपेन ग्रामीण-शहरी दोनों इलाकों में घर-घर पहुंच रहा है। वे सीपीआई(एमएल)एल, आरजेडी और कांग्रेस के झंडों से लिपटीं नजर आती हैं। नारे लगते हैं- तेजस्वी यादव, राहुल गांधी और दीपंकर भट्टाचार्य जिंदाबाद। स्टार प्रचारक या एसयूवी काफिले के बजाय पैदल मार्च और क्राउडफंडिंग पर जोर।
“महिलाओं की पहचान अक्सर पुरुष रिश्तेदारों से जोड़ी जाती है। महिला आरक्षण बिल का इंतजार क्यों? पार्टियां अभी महिलाओं को टिकट दें,” वे कहती हैं।
मुख्य मुद्दे हैं- जलजमाव, ट्रैफिक जाम, स्ट्रीट लाइट की कमी, बेरोजगारी और महिलाओं की सुरक्षा। युवा मतदाता करण कुमार (पटना यूनिवर्सिटी छात्र) कहते हैं, “कॉलेज में संसाधन नहीं, नौकरियां कम। तेजस्वी जैसी युवा सरकार से उम्मीद है।”
मोहम्मद इकबाल का कहना है, “बारिश में इलाका डूब जाता है। नितीश सरकार के 20 सालों में महंगाई और भ्रष्टाचार ही बढ़ा।”
एनडीए की ‘जंगल राज’ वाली नारेबाजी पर स्थानीय कहते हैं, “लालू युग खत्म हो चुका, लेकिन नितीश ने वादे पूरे नहीं किए।”
राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि दिव्या का कद माले को मजबूत कर सकता है। 2020 में माले ने 12 सीटें जीतीं, अब 20 पर उम्मीदवार उतारे हैं। महागठबंधन की सीट बंटवारा अंतिम चरण में है। दिव्या की जीत से विधानसभा में बहस का स्तर ऊंचा होगा और गरीबों-महिलाओं की आवाज बुलंद। दीघा के मतदाता बदलाव चाहते हैं- एक जमीनी, जुड़ी हुई विधायक की। क्या दिव्या यह ‘गोलियाथ’ (चौरसिया) को हराएंगी? 6 नवंबर को ही यह मालूम चलेगा।

