रेबीज एक भयानक और दर्दनाक बीमारी है। संक्रमण के बाद अगर समय पर इलाज न हो तो मौत निश्चित है। मरीजों को पानी, रोशनी और हवा से भी डर लगने लगता है (हाइड्रोफोबिया और एरोफोबिया)। बेंगलुरु के एक सरकारी अस्पताल में रेबीज वार्ड ऐसा है जहां हर मरीज की मौत होती है। डॉक्टरों के अनुसार, मरीजों में आक्रामकता, भ्रम और गंभीर दर्द देखा जाता है।
गरीबों की बीमारी क्यों?
रेबीज को विशेषज्ञ “गरीबों की बीमारी” कहते हैं क्योंकि इसका सबसे ज्यादा शिकार दिहाड़ी मजदूर, कचरा बीनने वाले, ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों के लोग होते हैं। भारत में करीब 8 करोड़ आवारा कुत्ते हैं और हर साल 2 करोड़ से ज्यादा कुत्ते काटने की घटनाएं दर्ज होती हैं। 2024-2025 के आंकड़ों में दिल्ली, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में कुत्ते काटने के मामले लाखों में देखे गए हैं।
One Health जर्नल में दिसंबर 2024 में प्रकाशित एक पेपर और The Lancet में जनवरी 2025 के अध्ययन के अनुसार, कई पीड़ितों को जागरूकता की कमी, इलाज की अनुपलब्धता और महंगी दवाओं के कारण पूरा कोर्स नहीं मिल पाता। सर्वे में पाया गया कि कुत्ते काटने वालों में से 20% को एंटी-रेबीज वैक्सीन (ARV) नहीं मिली और आधे ने पूरा कोर्स नहीं लिया।
इलाज की चुनौतियां
रेबीज का इलाज पोस्ट-एक्सपोजर प्रोफाइलैक्सिस (PEP) है: घाव को 15 मिनट साबुन से धोना, एंटी-रेबीज वैक्सीन, रेबीज इम्यूनोग्लोबुलिन (RIG) और टिटनेस इंजेक्शन। लेकिन RIG की भारी कमी है—सार्वजनिक अस्पतालों में सिर्फ 20% जगहों पर उपलब्ध। इसकी कीमत 5,000 से 20,000 रुपये तक होती है, जो गरीबों के लिए असंभव है।
वैक्सीन की भी कमी है: भारत को 6 करोड़ डोज चाहिए लेकिन उत्पादन सिर्फ 5 करोड़ का है।परिणामस्वरूप कई बच्चे (40% मामले 15 साल से कम उम्र के) झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाते हैं जो मिर्च पाउडर या चॉक जैसे अंधविश्वासों से इलाज करते हैं।
सकारात्मक विकास
हाल ही में भारत में दो नई रेबीज मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज (RmAbs) विकसित हुई हैं, जो RIG से सस्ती हैं। 2025 में The Lancet में प्रकाशित अध्ययनों ने इनकी सुरक्षा और प्रभावशीलता की पुष्टि की है। ये जल्द राष्ट्रीय दिशानिर्देशों में शामिल हो सकती हैं।
आवारा कुत्तों का नियंत्रण
नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को अस्पतालों, स्कूलों, रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों से आवारा कुत्तों को हटाकर शेल्टर में रखने, नसबंदी और टीकाकरण का आदेश दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि सिर्फ नसबंदी-टीकाकरण-रिलीज पर्याप्त नहीं; हर साल 40% कुत्ते नए आते हैं। समुदाय की भागीदारी जरूरी है—जो लोग कुत्तों को खिलाते हैं, उन्हें उनकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। अच्छे शेल्टर और जागरूकता अभियान भी जरूरी हैं।
रेबीज पूरी तरह रोकथाम योग्य बीमारी है। घाव धोना, तुरंत इलाज और कुत्तों का नियंत्रण इसे खत्म कर सकता है। सरकार, समुदाय और विशेषज्ञों के सहयोग से भारत 2030 तक रेबीज मुक्त होने का लक्ष्य हासिल कर सकता है।

