Noida Authority: प्राधिकरण में भ्रष्टाचार का नया तरीकाः ब्लो पर टेंडर प्रक्रिया सवालों के घेरे में, दोषी कौन ठेकेदार या प्राधिकरण के अफसर
Noida Authority: नोएडा प्राधिकरण में एक के बाद एक ऐसे प्रकरण सामने आ रहे हैं जिससे कि प्राधिकरण की निष्पक्षता और ईमानदारी पर सवाल खड़े हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट प्राधिकरण के पूरे सिस्टम पर ही सवाल खड़े कर चुका है। एक बार कहा कि आप यानी प्राधिकरण के आंख, नाक और कान से भ्रष्टाचार टपक रहा है। एक मामला अब प्राधिकरण की ई टेंडरिंग प्रणाली को लेकर चर्चाओं का विषय बना है। दरअसल ई टेंडरिंग में प्राधिकरण की ओर से दिखाया जा रहा है कि ब्लो पर टेंडर देकर प्राधिकरण को लाभ हो रहा है, लेकिन ये भ्रष्टाचार का एक नया तरीका प्रतीत हो रहा है। पूरे मामले को गहराई से देखें तो कोई भी व्यक्ति आसानी से समझ सकता है कि ई टेंडरिंग में भी किस तरह से प्राधिकरण के अधिकारियों और कर्मचारी मिलीभगत कर भ्रष्टाचार कर रहे हैं। चलिए आपको बताते हैं स्टेप वाइज कि किस तरह से प्राधिकरण में भ्रष्टाचार हो रहा है ।
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स्टेप वन सबसे पहले प्राधिकरण की ओर से उन स्थानों को चिन्हित किया जाता है जहाँ डेवलपमेंट के काम होने हैं सड़क बनी है नाला बनना है दीवार बनी है या फिर और कुछ होना काम होना है।
स्टेप टू चिन्हित करने के बाद काम कराने के लिए सबसे पहले उस स्थान की मापतोल की जाती है ताकि पता चल सके जो काम कराना है उसमें क्या खर्च आएगा। इसे कहते है मेजरमेंट। इसके बाद किस तरह का और किस गुणवत्ता का मटेरियल लगना है, ये तय किया जाता है।
स्टेप थ्री जब मेजरमेंट हो जाता है और पता चल जाता है कि कौन सा मटेरियल में लगना है। अब बारी आती है एस्टीमेट बनाने की, एस्टीमेट बनाया जाता है। जिसमे बताया जाता है किस तरह का मटेरियल लगना है। जिसमें बताया जाता है कि कितने एमएम का सरिया, सीमेंट की मात्रा की, रोड़ी की मात्रा व अन्य मटेरियल की मात्रा। इस तरह से पूरा टेंडर तैयार कर दिया जाता है।
स्टेप फोर इस टेंडर को ऑनलाइन स्पेसिफिकेशन्स के साथ पब्लिश किया जाता है। ताकि सभी ठेकेदार देख ले कहाँ का काम है और क्या काम है। उदाहरण के तौर पर एस्टीमेट तैयार हुआ है 1000 रुपये का लेकिन जब ठेकेदार इसे लेते है तो करीब 550 रुपये से लेकर 650 या 700 रुपये तक में इस काम को करने के लिए तैयार रहते हैं और टेंडर अपने नाम करा लेते हैं। ठेकेदार कोई भी हो लेकिन प्रक्रिया यही अपनाई जा रही है। इससे प्राधिकरण के उच्च अफसरों के अलावा दूसरे देखने वाले लोगों को लगता है अब प्राधिकरण का पैसा बच गया है। लेकिन जरा सोचिए ठेकेदार काम कर रहा है प्राधिकरण करा रहा। तो क्या ठेकेदार नुकसान में काम कर रहा है? यदि ठेकेदार को पैसा बचाना है तो उसे काम की गुणवत्ता, मटेरियल और जितना एरिया में काम होता है उससे समझौता करना पड़ेगा। बारी आती है प्राधिकरण अधिकारी और कर्मचारियों की। वो क्या ईमानदारी से सुपरविजन करते हैं और सही से नापतोल कर उनके बिल बनाते हैं। इस तरह के मामले में दूसरा ऑप्शन ये भी हो सकता है कि ठेकेदारों के लिए पहले ही किसी भी टेंडर को जारी करने से पहले उसका मूल्य बढ़ाकर पब्लिश किया जाए। ऐसे में सवाल यही है कि ई टेंडरिंग प्रणाली में प्राधिकरण सही है या फिर ठेकेदार। क्योंकि किसी न किसी को तो ऐसा कुछ करना पड़ेगा जो 1000 रुपये का काम 500-600 रुपये में किया जाए। नहीं तो ठेकेदार तो हमेशा अपने लाभ के लिए ही काम करते हैं। समझा जा सकता है कि प्राधिकरण में डेवलपमेंट के काम कितने ईमानदारी से हो रहे हैं। यदि कुछ कामों की जांच सीईओ स्तर से कराई जाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो सकता है।