Increasing rates of health and education News : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में इंदौर में एक कार्यक्रम के दौरान देश में स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं के व्यवसायीकरण पर गहरी चिंता जताते हुए, उन्होंने कहा कि ये दोनों बुनियादी आवश्यकताएं आज आम आदमी की आर्थिक पहुंच से बाहर हो गई हैं। भागवत का यह बयान एक बार फिर इस गंभीर मुद्दे को राष्ट्रीय चर्चा में लाया है कि आखिर क्यों सरकारें इन जरूरी सेवाओं को सस्ता और सुलभ बनाने में नाकाम रही हैं, और ये मुद्दे नीति-निर्माताओं तक क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं।
स्वास्थ्य और शिक्षा और आम आदमी की जद्दोजहद
स्वास्थ्य और शिक्षा, जो कभी सामाजिक सेवा का हिस्सा माने जाते थे, अब कॉर्पोरेट मुनाफे का साधन बन चुके हैं। भागवत ने इंदौर में ‘माधव सृष्टि आरोग्य केंद्र’ के उद्घाटन के दौरान कहा, “स्वास्थ्य और शिक्षा आज आम आदमी की आर्थिक क्षमता से परे हैं। लोग अच्छी चिकित्सा और शिक्षा के लिए अपनी जमा-पूंजी और संपत्ति तक बेच देते हैं, फिर भी ये सुविधाएं सुलभ नहीं हैं।”
आंकड़ों के मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च विश्व के कई देशों की तुलना में काफी कम है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपने जीडीपी का मात्र 1.3% खर्च करती है, जबकि वैश्विक औसत 5-6% है। निजी अस्पतालों में इलाज की लागत इतनी अधिक है कि एक सामान्य परिवार के लिए गंभीर बीमारी का इलाज कराना लगभग असंभव हो गया है। उदाहरण के लिए, कैंसर जैसी बीमारियों का इलाज केवल देश के 8-10 बड़े शहरों में उपलब्ध है, जहां मरीजों को न केवल इलाज, बल्कि यात्रा और रहने का खर्च भी वहन करना पड़ता है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थिति बेहतर नहीं है। निजी स्कूलों और कॉलेजों की फीस हर साल बढ़ रही है, जिसके कारण गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 24% बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ पाते हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में भी उच्च शिक्षा की लागत आम परिवारों की पहुंच से बाहर हो रही है।
सरकार तक मुद्दा क्यों नहीं पहुंचता?
सवाल उठता है कि इतने बड़े मुद्दे सरकार की प्राथमिकताओं में क्यों नहीं हैं? विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इसके कई कारण हैं:
1. नीतिगत प्राथमिकताओं का अभाव
पूर्व केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर ने एक लेख में लिखा कि भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा को कभी भी राष्ट्रीय प्राथमिकता नहीं बनाया गया। स्वतंत्रता के बाद से ही इन क्षेत्रों में निवेश की कमी रही है, जिसके कारण आज भी 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।
2. निजीकरण और केंद्रीकरण
भागवत ने कहा कि स्वास्थ्य और शिक्षा का व्यवसायीकरण और केंद्रीकरण इन सेवाओं को आम आदमी की पहुंच से दूर कर रहा है। बड़े शहरों में कॉर्पोरेट अस्पताल और विश्वविद्यालयों का बोलबाला है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं।
3. प्रशासनिक और सामाजिक असमानता
सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग नीति-निर्माण में प्रभावशाली है, जिसके कारण गरीबों की समस्याएं अक्सर अनदेखी हो जाती हैं। एक्स पर एक यूजर ने लिखा, “सरकारें जानबूझकर युवाओं को शिक्षा से दूर रख रही हैं, ताकि वे सवाल न उठाएं।” हालांकि यह दावा विवादास्पद है, लेकिन यह आम लोगों की निराशा को दर्शाता है।
4. जागरूकता और जवाबदेही की कमी
कई बार सरकार की योजनाएं, जैसे आयुष्मान भारत, जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो पातीं। भ्रष्टाचार और खराब क्रियान्वयन के कारण ये योजनाएं आम लोगों तक नहीं पहुंच पातीं।
समाधान की राह
विशेषज्ञों का मानना है कि स्वास्थ्य और शिक्षा को मौलिक अधिकारों में शामिल करना चाहिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कोविड महामारी के दौरान सुझाया था। इसके अलावा:
– सरकार को स्वास्थ्य और शिक्षा पर बजट आवंटन बढ़ाना चाहिए।
– ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ती और गुणवत्तापूर्ण सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए।
– निजीकरण को नियंत्रित करने के लिए सख्त नियम बनाए जाएं।
– सामाजिक जिम्मेदारी को बढ़ावा देने के लिए कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) को और प्रभावी बनाया जाए।
निष्कर्ष
स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों का आम आदमी की पहुंच से बाहर होना न केवल सामाजिक असमानता को बढ़ाता है, बल्कि देश के विकास को भी बाधित करता है। सरकार को इन मुद्दों को प्राथमिकता देनी होगी और समाज के हर वर्ग तक इन सेवाओं को सस्ता और सुलभ बनाना होगा। जब तक नीति-निर्माताओं और समाज के बीच संवाद की कमी रहेगी, तब तक ये मुद्दे अनसुलझे रहेंगे।

