दबाव के प्रमुख संकेत: क्यों लुढ़क रहा रुपया?
रुपये की गिरावट 2025 में लगातार बनी हुई है, जो 2022 के बाद सबसे बड़ी वार्षिक गिरावट की ओर इशारा कर रही है। मुख्य कारणों में शामिल हैं:
• विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई) का बहिर्वाह: निवेशक तेज़ी से भारतीय बाजारों से पूंजी निकाल रहे हैं, जिससे रुपये पर दबाव बढ़ा। नवंबर-दिसंबर में यह बहिर्वाह रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया।
• व्यापार घाटा का विस्तार: भारत का व्यापार घाटा रिकॉर्ड स्तर पर है, जहां निर्यात में मंदी और तेल-आयात जैसे खर्च बढ़ रहे हैं। कच्चे तेल की ऊंची कीमतें और कमजोर निर्यात वृद्धि ने रुपये को कमजोर किया।
• भारत-अमेरिका व्यापार सौदे में देरी: अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के नेतृत्व में व्यापार नीतियों की अनिश्चितता ने भारतीय निर्यातकों को चिंतित किया है। सौदे में देरी से डॉलर की मांग बढ़ी।
• वैश्विक कारक: मजबूत अमेरिकी डॉलर (फेड रेट हाइक्स के कारण) और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में कमजोर आय ने रुपये को प्रभावित किया। इसके अलावा, आरबीआई के हस्तक्षेप के बावजूद रुपये को स्थिर रखना चुनौतीपूर्ण रहा।
रुपया दिसंबर में 89.73 से गिरकर 90 के पार पहुंच गया, जो जीडीपी बूस्ट के बावजूद निर्यातकों के लिए चिंता का विषय है।
आम आदमी पर प्रभाव
रुपये की कमजोरी से आयात महंगा हो रहा है, जिसका असर तेल, खाद्य पदार्थों और कच्चे माल पर पड़ रहा है। इससे मुद्रास्फीति बढ़ने का खतरा है। विदेश यात्रा, उच्च शिक्षा और ईएमआई चुकाने वाले लोगों के लिए बोझ बढ़ा। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यह गिरावट निर्यात को बढ़ावा देगी और आईटी सेक्टर को फायदा पहुंचाएगी। हर 1% depreciaton से निर्यात में 0.5-0.7% वृद्धि हो सकती है।
पूर्व नीति आयोग उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा, “रुपये की depreciaton भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद है।” वहीं, बाजार विश्लेषक संदीप सभरवाल का मानना है कि यह चक्र पहले आरबीआई गवर्नर की नीतियों से शुरू हुआ था, और घबराहट बेकार है।
भविष्य की राह
आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) 5 दिसंबर को बैठक करेगी, जहां ब्याज दरों पर फैसला हो सकता है। फॉरवर्ड रेट्स के अनुसार, साल के अंत तक यूएसडी/आईएनआर 90.02 तक रह सकता है, जो आगे की अनिश्चितता दर्शाता है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अमेरिकी ब्याज दरों में कटौती से डॉलर कमजोर हो सकता है, लेकिन ट्रेड डील की प्रगति पर नजर रहेगी।
कुल मिलाकर, रुपये का यह दबाव भारत की मजबूत वृद्धि के बावजूद वैश्विक चुनौतियों का आईना है। निवेशकों और नीति निर्माताओं के लिए यह समय सतर्कता का है।

