नेपाल में कम्युनिस्ट सत्ता या सिर्फ़ ब्राह्मण वर्चस्व का राज, पढ़िए पूरी ख़बर

Brahmin supremacy in Nepal News: काठमांडू नेपाल की राजनीति में लंबे समय से एक सवाल गूंजता रहा है: क्या यह कम्युनिस्ट विचारधारा का शासन है या फिर ब्राह्मण (बाहुन) समुदाय के वर्चस्व का? देश की वर्तमान व्यवस्था को देखें तो कम्युनिस्ट पार्टियां सत्ता पर काबिज हैं, लेकिन उच्च पदों पर ब्राह्मणों का दबदबा इतना स्पष्ट है कि कई विश्लेषक इसे ‘ब्राह्मण राज’ कहने से नहीं हिचकते। नेपाल की जनगणना 2021 के अनुसार, ब्राह्मणों की आबादी महज 12.2% है, जबकि छेत्री (क्षत्रिय) 16.6% हैं। इन्हें मिलाकर ‘खस आर्य’ समूह की कुल आबादी लगभग 29% है। फिर भी, राजनीति, नौकरशाही और सेना में इनका प्रतिनिधित्व 50% से अधिक है।
नेपाल की राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो 1990 के लोकतंत्र बहाली के बाद से 13 प्रधानमंत्रियों में से 10 ब्राह्मण और 3 छेत्री रहे हैं। वर्तमान में, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) के के.पी. शर्मा ओली जैसे नेता ब्राह्मण पृष्ठभूमि से हैं। राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल भी ब्राह्मण हैं, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल (प्रचंड) माओवादी कम्युनिस्ट हैं लेकिन सत्ता में ब्राह्मणों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। सिविल सर्विस कमीशन के आंकड़ों के मुताबिक, 2017-18 में सरकारी नौकरियों में ब्राह्मणों को 33.3% और छेत्रियों को 20% पद मिले, जबकि इनकी आबादी का अनुपात इससे कहीं कम है।
यह वर्चस्व कोई नई बात नहीं। नेपाल के एकीकरण से लेकर राणा शासन और पंचायत काल तक ब्राह्मणों ने धार्मिक, प्रशासनिक और राजनीतिक भूमिकाओं में प्रमुखता हासिल की। 1854 के मुलुकी ऐन ने जाति व्यवस्था को कानूनी रूप दिया, जिसमें ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान मिला। आधुनिक नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टियां (जैसे सीपीएन-यूएमएल और माओवादी सेंटर) सत्ता संभालती हैं, लेकिन इन पार्टियों के नेतृत्व में भी ब्राह्मणों का बोलबाला है। फ्रीडम हाउस की 2024 रिपोर्ट के अनुसार, ब्राह्मण और छेत्री समूह सिविल सर्विस और राजनीति में अतिनुमतित हैं, जबकि जनजातियां, दलित और मधेसी हाशिए पर हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि कम्युनिस्ट शासन का नाम तो है, लेकिन वास्तविक शक्ति ब्राह्मण-छेत्री गठजोड़ के हाथों में है। बीटीआई 2024 रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्राह्मण न केवल राजनीति, बल्कि न्यायपालिका, शिक्षा, मीडिया और एनजीओ में हावी हैं। नेपाल के लोकल गवर्नमेंट में भी खस आर्य पुरुष मेयर पदों पर तीन गुना अधिक प्रतिनिधित्व रखते हैं। सोशल मीडिया पर हाल के प्रदर्शनों में भी यह मुद्दा उठा है। एक एक्स पोस्ट में पत्रकार ने लिखा, “नेपाल के राजनीति में ब्राह्मण और क्षेत्रियों का दबदबा है, वहां जनजातियों और दलितों की भागीदारी बहुत कम है।” एक अन्य पोस्ट में कहा गया, “नेपाल की राजनीति पर हमेशा से पहाड़ी ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों का दबदबा रहा है।”
हालांकि, 2025 में नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गई है। सितंबर में सोशल मीडिया बैन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जेन-जेड प्रदर्शनों ने प्रधानमंत्री ओली को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया। इन प्रदर्शनों में युवा नेता बालेन शाह (मधेसी बौद्ध) को प्रधानमंत्री बनाने की मांग उठी, जो नेपाल के पहले गैर-ब्राह्मण-सवर्ण नेता हो सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या पुरानी व्यवस्था इसे स्वीकार करेगी?
कई सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं कि कम्युनिस्ट सत्ता ने जातिगत असमानता को कम करने का वादा किया था, लेकिन ब्राह्मण वर्चस्व ने इसे ‘ब्राह्मण राज’ बना दिया। नेपाल के संविधान में खस आर्य को आरक्षण से वंचित रखा गया है, लेकिन उनका प्रभाव कम नहीं हुआ। भविष्य में यदि जनजातियों और अन्य समुदायों को समान अवसर मिले, तो ही सच्चा लोकतंत्र मजबूत होगा। फिलहाल, नेपाल की सड़कों पर गूंज रहे नारे बताते हैं कि बदलाव की मांग तेज हो रही है।
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