न्यायमूर्ति विनोद एस भारद्वाज की पीठ ने 11 दिसंबर को यह फैसला सुनाया। याचिकाकर्ता वकील ने हरियाणा के हिसार में जुलाई महीने में एक सार्वजनिक सभा में दिए गए भाषण के आधार पर दर्ज FIR को रद्द करने की मांग की थी। यह सभा 16 नवंबर 2024 को हरियाणा में एक महिला की बलात्कार और हत्या की घटना से जुड़ी थी, जिसमें आरोपी मौजूद थे।
भाषण में क्या कहा गया?
वकील ने अपने भाषण में बार-बार “जाति” का जिक्र किया और कुछ लोगों को “जातिवादी गुंडे” (casteist gundas) कहा। साथ ही पुलिस अधिकारियों पर रिश्वतखोरी के आरोप लगाए। यह भाषण सोशल मीडिया पर अपलोड किया गया था। पीड़िता के बेटे ने शिकायत दर्ज कराई, जिसमें कहा गया कि भाषण मानहानिकारक था, जाति आधारित नफरत भड़काने वाला और सार्वजनिक शांति भंग करने की क्षमता रखता था।
इसके बाद वकील के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 196 (विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य फैलाना) सहित अन्य धाराओं के तहत FIR दर्ज की गई, जिसमें मानहानि, झूठी जानकारी फैलाना और सार्वजनिक उपद्रव जैसे आरोप शामिल हैं।
कोर्ट की टिप्पणियां
कोर्ट ने कहा, “स्वतंत्रता के आदर्शों पर आधारित राष्ट्र में जाति आधारित नफरत भरा भाषण न केवल व्यक्तिगत गरिमा को चोट पहुंचाता है, बल्कि सामाजिक सद्भाव और राष्ट्र की सामूहिक चेतना को खतरे में डालता है।”
पीठ ने आगे कहा कि “जातिवादी गुंडे” जैसे शब्दों का इस्तेमाल व्यक्तियों की आलोचना से आगे जाकर पूरी जाति या समूह को अपराधी और नैतिक रूप से भ्रष्ट ठहराने का प्रयास करता है। ऐसे भावपूर्ण माहौल में यह पूर्वाग्रह को वैध ठहराने, शत्रुता भड़काने और सार्वजनिक शांति भंग करने का खतरा पैदा करता है।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है और संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार और राष्ट्र की एकता के हित में उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। वकील होने के नाते याचिकाकर्ता को अपने शब्दों के सामाजिक प्रभाव की पूरी जानकारी थी, फिर भी उन्होंने जानबूझकर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया।
कोर्ट ने यह भी कहा कि वकील का काम अदालत में मुवक्किल का बचाव करना है, न कि सार्वजनिक मंच पर प्रदर्शन आयोजित कर आरोप लगाना। भाषण सार्वजनिक भीड़ के सामने दिया गया, जो जातिगत अत्याचार के खिलाफ समर्थन में इकट्ठी हुई थी, ऐसे में जाति आधारित भावुक शब्दों से जुनून भड़कने और ध्रुवीकरण का खतरा अधिक था।
याचिकाकर्ता का पक्ष
वकील की ओर से दलील दी गई कि वह अपने मुवक्किल (हत्या मामले के एक आरोपी) का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग कर रहे थे। FIR को पेशेवर काम के बदले प्रतिशोध बताया गया। लेकिन कोर्ट ने इन दलीलों को खारिज कर दिया।
यह फैसला हाल ही में प्रकाशित रिपोर्टों में प्रमुखता से छपा है और जाति आधारित नफरत भरे भाषण पर सख्त रुख अपनाने का संकेत देता है। मामले में आगे की जांच जारी रहेगी।

