प्रख्यात स्तंभकार सी. राजा मोहन ने एक अख़बार में लिखा है कि भारतीय कम्युनिज्म की यात्रा का अंत मानना अभी जल्दबाजी होगी। एक समय कम्युनिस्ट दल राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी ताकत थे। 2004 के लोकसभा चुनाव में वामपंथी दलों के पास करीब 60 सीटें थीं और वे यूपीए सरकार के निर्णयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में उनकी सरकारें थीं। लेकिन 2008 में यूपीए से समर्थन वापस लेने और उसके बाद की घटनाओं ने उनकी स्थिति को कमज़ोर कर दिया। आज लोकसभा में वामपंथी दलों की सीटें मुश्किल से 8-10 के आसपास हैं (सीपीआई के 2, सीपीआईएम के लगभग 3-4) और उनका वोट शेयर 3 प्रतिशत से नीचे आ गया है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता खो चुकी है, केवल केरल में कुछ प्रभाव बाकी है।
भारतीय कम्युनिज्म की कहानी उतार-चढ़ाव से भरी है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद रूसी क्रांति के प्रभाव से भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा का उदय हुआ। गदर पार्टी के कार्यकर्ता, भगत सिंह के साथी, बंगाल के क्रांतिकारी, बॉम्बे-मद्रास के ट्रेड यूनियनिस्ट और किसान नेता इसमें शामिल हुए। औपनिवेशिक दमन के बावजूद कम्युनिस्टों ने मेरठ, कानपुर और पेशावर षडयंत्र केस जैसे मुकदमों को मार्क्सवादी विचारों को फैलाने का माध्यम बनाया। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। तेलंगाना विद्रोह जैसे आंदोलनों ने भूमि सुधार को राष्ट्रीय एजेंडे पर ला खड़ा कर दिया।
स्वतंत्र भारत में कम्युनिस्टों का योगदान अकाट्य है। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता, संघीय ढांचे और कल्याणकारी राज्य की वकालत की। साहित्य, नाटक, सिनेमा और संस्कृति में उन्होंने हाशिए के स्वरों को जगह दी। लेकिन वैचारिक कट्टरता, विभाजन (1964 में सीपीआई और सीपीआईएम का बंटवारा), राष्ट्रीयता बनाम अंतरराष्ट्रीयता के द्वंद्व और गठबंधन बनाने में असफलता ने उन्हें कमज़ोर किया।
आज कम्युनिस्ट दल राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं, लेकिन जिन समस्याओं ने कम्युनिज्म को जन्म दिया था—गहरी असमानता, कृषि संकट, असुरक्षित मज़दूरी, सामंती मूल्यों का अवशेष और वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल—वे पहले से कहीं ज़्यादा तीव्र हैं। विश्व स्तर पर भी समाजवादी और वामपंथी विचारों में नई रुचि दिख रही है।
सी. राजा मोहन का मानना है कि यदि भारतीय कम्युनिस्ट वैचारिक जड़ता त्यागकर व्यापक लोकतांत्रिक गठबंधन बनाने की कला फिर से सीख लें, तो वे 21वीं सदी के भारत के विकास में सार्थक योगदान दे सकते हैं। विभिन्न कम्युनिस्ट और समाजवादी धड़ों का एक मंच पर एकीकरण पहला कदम हो सकता है। अन्य देशों में सफल वामपंथी दल वैचारिक मतभेदों के बावजूद संगठनात्मक एकता बनाए रखते हैं।
भारतीय कम्युनिज्म का भविष्य अनिश्चित है, लेकिन उसके विचार और संघर्ष भारत की लोकतांत्रिक यात्रा का अभिन्न हिस्सा बने रहेंगे। शताब्दी वर्ष इसकी चुनौतियों और संभावनाओं पर चिंतन का अवसर लेकर आती रहेंगी।

