धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिये मैं
छोड़ती-हाँफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर
अपनी जमीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ!
Women Day: भारतीय समाज की महिलाओं की स्थिति को बखूबी बयां करती निर्मला पुतुल की ये कुछ पंक्तियाँ पूरे समाज की व्यवस्था पर सवाल उठा रही हैं। भले ही आज हम यह कहकर अपनी पीठ थपथपा लें कि आजादी के 75 वर्षो में हमारी महिलाएँ चाँद पर पहुँच गई हैं, फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं, ओलंपिक में पदक जीत रही हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियाँ चला रही हैं या राष्ट्रपति बनकर देश को संभालना , लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो यह संख्या महिलाओं की आबादी का बहुत ही थोड़ा ही है। हमारे समाज की महिलाओं का एक बड़ा तबका आज भी सामाजिक बंधनों की बेड़ियों को पूरी तरह से तोड़ नहीं पा रहा है।
उनका अपना अलग अस्तित्व नहीं है या यूँ कहें कि हमारा पितृसत्तात्मक समाज उन्हें जन्म से ही ऐसे साँचे में ढालने लगता है कि वे अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये पुरुषों का सहारा ढूँढती हैं। उधर यह भी सत्य है कि जब-जब कोई महिला अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहती है तब-तब न जाने कितने रीति-रिवाजों, परंपराओं, पौराणिक आख्यानों की दुहाई देकर उसे गुमनाम व बेबसी का जीवन जीने पर विवश कर दिया जाता है। इसलिए यह जानना जरूरी है कि तेजी से विकास के मार्ग पर अग्रसर भारत में शैक्षिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक स्तर पर महिलाओं ने अब तक कितनी दूरी तय की है-
महिलाओं की साक्षरता दर कितनी?
भारत में आज भी बहुत सी बेटियां ऐसी हैं, जो शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। वहीं, पढ़ाई-लिखाई के दौरान बीच में ही स्कूल छोड़ देने वाली लड़कियों की संख्या भी लड़कों की संख्या से बहुत अधिक होती है क्योंकि लड़कियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे घर के कामकाज में मदद यानी हाथ बटांया करें। वहीं, उच्च शिक्षा की बात करें तो बहुत सी लड़कियाँ सिर्फ इसलिए उच्च शिक्षा से वंचित रह जाती हैं कि उनके परिवार वाले पढ़ाई के लिये उन्हें घर से दूर नहीं भेजते हैं।
जिसके चलते उनका अधिकतर समय घरेलू कामों में खर्च होता है और महिलाओं व पुरुषों के बीच समानता का अंतराल बढ़ता चला जाता है। इससे इस मिथक को बढ़ावा मिलता है कि, शिक्षा-दीक्षा लड़कियों के किसी काम की नहीं है दरअसल गलत मान्यता है कि अंत में उन्हें प्राथमिक रूप से घर ही संभालना है, शादी करनी है और पति व बच्चों की सेवा करनी है। इतना ही नहीं, लड़कियों को शादी कब करनी है, किससे करनी है, बच्चे कब पैदा करने हैं? ये सब कुछ भी हमारी पितृसत्ता तय करती है।
पीछले रिकार्ड पर नजर डालें तो, वर्ष 1951 में भारत की साक्षरता दर केवल 18.3 प्रतिशत थी जिसमें से महिलाओं की साक्षरता दर 9 फीसदी से भी कम थी। वहीं, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के डाटा के अनुसार साल 2021 में देश की औसत साक्षरता दर 77.70 प्रतिशत थी जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 84.70 प्रतिशत, जबकि महिलाओं की साक्षरता दर 70.30 प्रतिशत थी। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के बाद से अब तक महिलाओं की साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, लेकिन अभी भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। निम्नलिखित पंक्तियाँ देश की बेटियों को एक बार फिर से उठ खड़े होने का जज्बा प्रदान करती हैं।
किचन में महिलाएँ ही क्यों?
Women Day: भारतीय घरों के किचन में केवल महिलाएं ही दिखाई पड़ती है। जिससे महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भी घर की बेटी, बहू, माँ व पत्नी चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी क्यों न होय कितने ही बड़े पद पर काम क्यों न कर रही होय घर के सभी सदस्यों के लिये खाना पकाने व परोसने की उम्मीद सिर्फ महिला सदस्य से ही की जाती है। इसी वजह से भारतीय समाज में लड़कियों को बचपन से ही रसोईघर के काम सिखाने शुरू कर दिए जाते हैं, जबकि लड़कों को रसोई से दूर रखा जाता है। जिससे आगे चलकर वे लड़के, जिनसे कभी रसोई के काम नहीं करवाए गएय जिन्होंने कभी अपने पिता को माँ के साथ खाना बनाते या अन्य घरेलू कामों में मदद करते नहीं देखा, वे भी अपने बच्चों को वैसा ही बनाते हैं जैसा उन्होंने अपने परिवार में देखा होता है। जिससे पितृसत्ता की विचारधारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बिना किसी रुकावट के स्थानांतरित होती रहती है और अधिकांश महिलाएँ पूर्ण रूप से देश के विकास में अपना योगदान नहीं दे पाती हैं।
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यहाँ पर इस बात पर भी विचार करना जरूरी है कि, महिलाएँ घर के पुरुषों को खाना खिलाने के बाद अंत में खाना खाती हैं। घर का कोई पुरुष इस बारे में नहीं सोचता कि उन्हें भी हमारे साथ बैठकर खाने का अधिकार है। इसका यह मतलब नहीं कि सभी पुरुष क्रूर और हिंसक है। इसका मतलब यह है कि, पितृसत्ता ने हमें ऐसा बना दिया है कि हम उससे परे जाकर सोच नहीं पाते हैं। जिसमें बदलाव की जरूरत है।
धर्मों के आधार में भी महिलाएं कमजोर
भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में शिक्षा, मीडिया, कानूनी संस्थाएँ, आर्थिक संस्थाएँ, राजनीतिक संस्थाएँ सभी पूरी तरह से पितृसत्तात्मक हैं। यहाँ तक कि, सभी धर्म भी पितृसत्तात्मक हैं। अधिकांश धर्म महिला को अपना मुख्य आराध्य नहीं मानते। चूंकि धर्मों में पितृसत्ता को सर्वोच्च दिखाया गया है इसलिए महिलाओं को हमेशा से धर्म के नाम पर दबाने का प्रयास किया जाता है, और महिलाएँ बिना बराबरी का अधिकार माँगे अपने पति को परमेश्वर, स्वामी मानने लगती हैं। वह इस बात पर जरा भी विचार नहीं करतीं कि पति-पत्नी में अगर एक मालिक है तो दूसरा कौन होगा? वह आसानी से अपने आपको गुलाम मान लेती हैं क्योंकि उनका प्राइमरी स्कूल जो कि उनका परिवार होता है, उसमें उन्हें बचपन से ही ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है।
आर्थिक रूप से कहां खड़ी भारतीय महिलाएँ
महिलाओं की अधिकांश समस्याओं का कारण एक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता है जिससमें वे बहुत पिछड़ी है। यह बेहद चिंताजनक है कि देश की कुल आबादी में 48 प्रतिशत महिलाए हैं जिसमें से मात्र एक तिहाई महिलाएँ रोजगार में संलग्न हैं। इसी वजह से भारत की जीडीपी में महिलाओं का योगदान केवल 18 फीसदी है।
अगर परिवार के अंदर और बाहर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावों को समाप्त कर पुरुषों के समान अर्थव्यवस्था में भागीदारी करने के अवसर प्रदान किए जाएं तो अन्य महिलाएं भी गीता गोपीनाथ, इंद्रा नुई, किरण मजूमदार शॉ की तरह सशक्त होंगी, साथ ही देश भी आर्थिक मोर्चे पर तेजी से प्रगति करेगा।
सत्ता व न्यायालयों में महिलाओं की स्थिति
कहा जा सकता कि आज के समय में महिलाएं घर की चारदीवारी से निकलकर सत्ता की बागडोर संभालने लगी हैं। उसे कुशल संचालन भी कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, ममता बनर्जी, प्रियंका गाँधी, स्मृति ईरानी, मेनका गाँधी, मायावती को देखा जा सकता है। लेकिन देश में महिलाओं की आबादी के अनुसार देखें तो राजनीति में महिलाओं की संख्या अभी भी काफी कम है। भारतीय संसद में केवल14 फीसदी महिलाएँ हैं, जबकि संसद में महिलाओं की वैश्विक औसत भागीदारी 25 फीसदी से ज्यादा है। इसके अलावा, ग्रामीण अंचलों में पंचायत स्तर पर अधिकांश महिलाओं को केवल मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जाता है यानी चुनाव तो महिला जीतती है लेकिन सत्ता से संबंधित सभी निर्णय उसके परिवार के पुरुष सदस्य करते हैं।
वहीं, न्यायालय में भी महिलाओं की संख्या संतोषजनक नहीं है। आपको जानकर हैरानी होगी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय सहित उच्च न्यायालयों में मौजूद न्यायाधीशों में महज 11 प्रतिशत महिलाएँ हैं। समय की माँग है कि अब महिलाएँ जाग्रत हों और अपनी क्षमता को पहचान कर, परंपरागत रूढ़ियों को खंडित कर देश की मुख्यधारा में अधिक से अधिक योगदान दें।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आजादी के बाद से अब तक भारत में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में एक लंबा रास्ता तय किया है, परंतु अभी भी मंजिल से मीलों दूर हैं। तेजी से भागते समय के इस पहिये के साथ हमारी रफ्तार बहुत धीमी है, और इस रफ्तार को तभी बढ़ाया जा सकता है जब भारतीय समाज पितृसत्तात्मक मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं को भी पुरुषों के समान बराबरी के अधिकार प्रदान करेगा। हालाँकि हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिए गए हैं लेकिन यहाँ का समाज अपने नियमों के अनुसार, महिलाओं को संचालित करता है, जिसमें बदलाव की सख्त जरूरत है।
साथ ही, इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिये कि हमें नारीशक्ति का उद्धारक नहीं, वरन् उनका सहायक बनना है। भारतीय महिलाएँ भी संसार की अन्य महिलाओं की तरह अपनी समस्याओं को सुलझाने की क्षमता रखती हैं। आवश्यकता बस इतनी है कि उन्हें उपयुक्त अवसर प्रदान किए जाएँय उनका वस्तुकरण करने की बजाय उन्हें मनुष्य समझा जाए।