अर्बन नक्सल: शहरी विद्रोह का नया चेहरा या सिर्फ असहमति का हथियार?

Urban Naxals: भारत की राजनीतिक और सामाजिक बहस में ‘अर्बन नक्सल’ शब्द पिछले कुछ वर्षों से एक ध्रुवीकरण पैदा करने वाला मुद्दा बन चुका है। क्या यह नक्सली आंदोलन का शहरी विस्तार है, जो देश की आंतरिक सुरक्षा को चुनौती दे रहा है? या फिर यह एक काल्पनिक लेबल है, जिसका इस्तेमाल असहमति की आवाजों को दबाने के लिए किया जा रहा है? इस शब्द की उत्पत्ति, उपयोग और विवाद पर गहन नजर डालते हुए, हम इस मुद्दे की पड़ताल करते हैं।

नक्सलवाद का शहरी रूप: क्या है ‘अर्बन नक्सल’?
नक्सलवाद, जो 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ था, मूल रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में माओवादी विचारधारा पर आधारित सशस्त्र विद्रोह है। लेकिन 21वीं सदी में इसके स्वरूप में बदलाव आया। ‘अर्बन नक्सल’ शब्द का इस्तेमाल उन शहरी बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, वकीलों और एनजीओ प्रतिनिधियों के लिए किया जाता है, जो कथित तौर पर नक्सली संगठनों को वैचारिक समर्थन देते हैं, बिना सीधे हिंसा में शामिल हुए। फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री की 2018 में रिलीज हुई किताब और फिल्म ‘अर्बन नक्सल’ ने इस शब्द को लोकप्रिय बनाया, जिसमें दावा किया गया कि ये लोग शहरों से नक्सली एजेंडे को बढ़ावा देते हैं।

सरकारी और दक्षिणपंथी दृष्टिकोण से, अर्बन नक्सल नक्सलवाद का ‘एके-47 रहित’ संस्करण हैं, जो सोशल मीडिया, प्रदर्शनों और कानूनी लड़ाइयों के जरिए ‘एंटी-भारत’ प्रचार फैलाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2024 में राष्ट्रीय एकता दिवस पर कहा था कि “अर्बन नक्सल एकजुटता के संदेश को भी निशाना बनाते हैं, इन्हें पहचानना और बेनकाब करना जरूरी है।” इसी तरह, 2024 के अंत में केंद्र सरकार ने नक्सलवाद के समर्थकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की योजना बनाई, जिसमें कानूनी कमजोरियों को दूर करने पर जोर दिया गया।

भिमा कोरेगांव मामला: विवाद की जड़
इस शब्द का राजनीतिक उपयोग 2018 के भिमा कोरेगांव हिंसा के बाद चरम पर पहुंचा। पुणे पुलिस ने 16 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया, जिन्हें ‘भिमा कोरेगांव अर्बन नक्सल’ (बीके-16) कहा गया। इनमें वकील सुधा भारद्वाज, पत्रकार गौतम नवलखा, कवि वरवर राव जैसे नाम शामिल थे। पुलिस का दावा था कि ये लोग माओवादी संगठनों के साथ साजिश रच रहे थे। लेकिन कई महीनों बाद, 2024 में सुधा भारद्वाज की रिहाई के बाद उन्होंने इसे ‘राजनीतिक साजिश’ बताया।

माओवादी रणनीति में ‘शहरी क्षेत्र’ का महत्व हमेशा रहा है – नेतृत्व, जनसंगठन और प्रचार के लिए। लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह शब्द असल में असहमति को दबाने का उपकरण है।

आलोचना का दौर: ‘काल्पनिक शब्द’ या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला?
विपक्षी दल और मानवाधिकार संगठन ‘अर्बन नक्सल’ को एक ‘काल्पनिक’ शब्द मानते हैं, जिसका इस्तेमाल भाजपा असहमतियों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ ठहराने के लिए करती है। महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष हर्षवर्धन सपकल ने जून 2025 में कहा कि यह शब्द भाजपा का ‘ट्रैक्शन गेन करने’ का तरीका है। बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट्स में भी उल्लेख है कि यह शब्द मोदी सरकार की चुनावी रणनीति का हिस्सा लगता है, जो ‘नक्सली भय’ का फायदा उठाता है।

2025 में महाराष्ट्र विधानसभा में पेश ‘विशेष जनसुरक्षा विधेयक’ ने विवाद को नया मोड़ दिया। इसमें ‘अर्बन नक्सल’ को ‘अत्यधिक वामपंथी विचारधारा’ से बदल दिया गया, लेकिन विपक्ष ने इसे असहमति दबाने का हथियार बताया। विधेयक में अस्पष्ट भाषा, न्यायिक निगरानी की कमी और भेदभावपूर्ण फोकस की आलोचना हो रही है। द वायर जैसे प्लेटफॉर्म्स पर इसे ‘शहरी नक्सल मिथक’ तोड़ने की कोशिश बताया गया।
आईएएस ज्ञान जैसी साइट्स पर भी चिंता जताई गई कि यह शब्द अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचल सकता है।

बहस जारी
‘अर्बन नक्सल’ शब्द आज भारत की राजनीति का आईना बन चुका है – एक तरफ राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल, दूसरी तरफ लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा। जबकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा कम हुई है, शहरी बहस तेज हो रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि कानूनी स्पष्टता और संतुलित जांच ही इस विवाद को सुलझा सकती है। क्या यह शब्द इतिहास का हिस्सा बनेगा या राजनीतिक हथियार? समय ही बताएगा।

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