ऊँचे पदों पर भी दलितों का दर्द: हरियाणा आईपीएस की आत्महत्या और सुप्रीम कोर्ट पर जूते की घटना ने बढ़ाया जातिगत भेदभाव का घाव

The exploitation of Dalits in high positions: भारत में दलितों के खिलाफ भेदभाव का इतिहास सदियों पुराना है, लेकिन हाल की दो घटनाओं ने फिर साबित कर दिया कि आरक्षण और संवैधानिक सुरक्षा के बावजूद, ऊँचे पदों पर पहुँचने के बाद भी जातिगत पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है। हरियाणा के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की 7 अक्टूबर को चंडीगढ़ में गोली मारकर आत्महत्या और सुप्रीम कोर्ट में दलित मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर 6 अक्टूबर को जूता फेंकने की घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया है। ये घटनाएँ न केवल व्यक्तिगत त्रासदी हैं, बल्कि संस्थागत भेदभाव की गहरी जड़ों को उजागर करती हैं।

आईपीएस पूरन कुमार: ‘जातिगत उत्पीड़न’ का अंतिम संदेश
52 वर्षीय पूरन कुमार, 2001 बैच के आईपीएस अधिकारी, रोहतक के पुलिस ट्रेनिंग सेंटर में इंस्पेक्टर जनरल के पद पर तैनात थे। 7 अक्टूबर को उनके चंडीगढ़ स्थित आवास पर खुद को गोली मारने से उनकी मौत हो गई। घटनास्थल से मिले आठ पेज के ‘फाइनल नोट’ में उन्होंने हरियाणा के आठ वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों, जिसमें डीजीपी शत्रुजीत कपूर और पूर्व रोहतक एसपी नरेंद्र बिजरनिया शामिल हैं, पर ‘जातिगत भेदभाव, मानसिक उत्पीड़न और सार्वजनिक अपमान’ का आरोप लगाया।

नोट का शीर्षक था: “हरियाणा के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा अगस्त 2020 से जारी जातिगत भेदभाव, लक्षित मानसिक उत्पीड़न, सार्वजनिक अपमान और अत्याचार—अब असहनीय हो गया।”
उनकी पत्नी, आईएएस अधिकारी अमनीत पी. कुमार ने शिकायत में कहा कि पूरन का दलित समुदाय से होना ही उनके उत्पीड़न का मुख्य कारण था। उन्होंने डीजीपी और अन्य अधिकारियों पर ‘सिस्टेमेटिक साजिश’ का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई। अमनीत ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर आरोपी अधिकारियों की तत्काल गिरफ्तारी और निलंबन की मांग की। चंडीगढ़ पुलिस ने छह सदस्यीय एसआईटी गठित की है, लेकिन पोस्टमॉर्टम सात दिनों तक लटका रहा, जिससे परिवार ने आरोप लगाया कि जांच में देरी हो रही है।

राजनीतिक हलकों में हंगामा मच गया। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 14 अक्टूबर को परिवार से मुलाकात की और कहा, “ये एक दलित दंपति की कहानी है। पूरन कुमार को वर्षों तक सिस्टेमेटिक डिस्क्रिमिनेशन का सामना करना पड़ा, जो उनके करियर को नुकसान पहुँचाने के लिए था।” मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे ‘मनुवादी व्यवस्था का अभिशाप’ बताया, जबकि आप के अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी पर ‘जातिवादी माहौल’ बनाने का आरोप लगाया। तेलंगाना के डिप्टी सीएम मल्लू भट्टी विक्रमarka ने कहा, “ये लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।”

हालांकि, कुछ रिपोर्ट्स में भ्रष्टाचार के आरोप भी उभरे हैं—एक अन्य पुलिस अधिकारी संदीप लाठर की आत्महत्या में पूरन पर रिश्वतखोरी का इल्जाम लगा, लेकिन परिवार ने इसे साजिश करार दिया।

पूरन के बैचमेट ने बताया, “उन्हें अक्सर ‘दलित लड़का जो नर्व्स पर चढ़ जाता है’ कहा जाता था।” उनके भाई विक्रम ने कहा, “हमारे माता-पिता ने हमें अंबेडकर का रास्ता अपनाने को कहा था—शिक्षा लो, भेदभाव को नजरअंदाज करो।” दलित संगठनों ने न्याय की मांग की है, लेकिन पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अबेटमेंट टू सुसाइड के आरोपों पर सवाल उठाए हैं।

सुप्रीम कोर्ट पर जूता: ‘सनातन धर्म का अपमान’ या जातिगत हमला?

मात्र एक दिन पहले, 6 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट के कोर्ट नंबर 1 में एक वकील राकेश किशोर ने मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर जूता फेंक दिया। 71 वर्षीय किशोर ने नारा लगाया, “सनातन धर्म का अपमान सहन नहीं करेंगे!” जूता बेंच के पास गिरा, लेकिन सीजेआई शांत रहे और सुनवाई जारी रखी। किशोर ने बाद में कहा कि ये सीजेआई के खजुराहो विष्णु मूर्ति बहाली याचिका पर टिप्पणी से आहत होकर किया—जिसमें गवई ने कहा था, “मूर्ति से ही पूछ लो कि सिर कैसे लगे।” किशोर ने दावा किया कि ये टिप्पणी हिंदू धर्म का अपमान थी।

लेकिन घटना को व्यापक रूप से जातिगत हमला माना गया, क्योंकि गवई भारत के दूसरे दलित सीजेआई हैं। सोशल मीडिया पर ट्रोल्स ने उन्हें ‘नीली त्वचा’ और ‘मिट्टी के बर्तन’ से जोड़कर अपमानित किया—दलितों के खिलाफ स्टीरियोटाइप्स। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने इसे ‘स्पष्ट जातिवादी हमला’ कहा।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने किशोर को निलंबित कर दिया, लेकिन सीजेआई ने एक्शन न लेने को कहा। अटॉर्नी जनरल ने 16 अक्टूबर को कंटेम्प्ट प्रोसीडिंग्स की मंजूरी दी।

राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ तीखी रहीं। पीएम मोदी ने सीजेआई से बात की और इसे ‘लोकतंत्र पर हमला’ कहा। राहुल गांधी ने ‘संविधान पर सीधा प्रहार’ बताया, जबकि कर्नाटक के सीएम सिद्धरमैया ने कहा, “दलित जज का उदय ऊँची जातियों को बर्दाश्त नहीं।” आप के केजरीवाल ने इसे ‘दलितों को दबाने की साजिश’ करार दिया। एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने कहा, “अगर नाम असद होता, तो अब तक गिरफ्तार हो जाते।” किशोर ने सफाई दी कि वह खुद दलित हैं, लेकिन ये दावा विवादास्पद रहा।

ऊँचे पदों पर भी भेदभाव: पूर्व अधिकारियों की जुबानी
बीबीसी हिंदी ने पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं में काम कर चुके दलित अधिकारियों से बात की, जो इस सिस्टम की कड़वी सच्चाई बयान करते हैं। एक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी (नाम गोपनीय) ने बताया, “आरक्षण से हम ऊपर पहुँचे, लेकिन ‘कास्टलेस ब्यूरोक्रेट’ का मिथक झूठा है। प्रोन्नति में देरी, खराब एसीआर, और सार्वजनिक अपमान—ये रोज की जंग है। पूरन कुमार जैसे कई हैं जो चुप रहते हैं।” एक पूर्व आईएएस अधिकारी ने कहा, “पुलिस में ऊँची जाति के प्रभाव से दलितों के केस रजिस्टर ही नहीं होते। न्यायपालिका में भी 99% जज ऊँची जाति से हैं—दलितों के पक्ष में फैसला मुश्किल।”

ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट्स बताती हैं कि दलितों के खिलाफ अपराध हर 20 मिनट में एक होता है, लेकिन पुलिस पूर्वाग्रहपूर्ण होती है। 2019 की एक स्टडी में पाया गया कि पुलिस स्टेशनों में दलितों का प्रवेश ही प्रतिबंधित है। एक दलित वकील ने कहा, “सीजेआई गवई पर जूता फेंकना ये दिखाता है कि पद ऊँचा हो या नीचा, जाति का जहर बरकरार है।”

क्या रास्ता? न्याय की मांग
ये घटनाएँ सवाल उठाती हैं: क्या संविधान के अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता उन्मूलन) और एससी/एसटी एक्ट पर्याप्त हैं? विशेषज्ञों का कहना है कि पुलिस और न्यायपालिका में दलित प्रतिनिधित्व बढ़ाना, सेंसिटाइजेशन ट्रेनिंग और तेज जांच जरूरी है। दलित संगठन न्यायिक जांच की मांग कर रहे हैं।

पूरन कुमार की मौत और गवई पर हमला सिर्फ व्यक्तिगत नहीं—ये पूरे दलित समुदाय का दर्द है। अंबेडकर का सपना समानता का था, लेकिन हकीकत में जहर अभी भी घुला है। सरकार को अब कार्रवाई करनी होगी, वरना ये घाव और गहरा हो जाएगा।

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