डोम समाज: छठ के ‘डोम राजा’ बांस से बने ये सूप-डाले छठ की शुद्धता का प्रतीक हैं। आधुनिक समय में सोने-चांदी के बर्तन इस्तेमाल होते हैं, लेकिन अंतिम अर्घ्य हमेशा डोम के हाथों का बना सूप ही होता है। छठ के दौरान ये ‘मालिक जी’ या ‘डोम राजा’ कहलाते हैं। राजापुर गांव की अरुणा देवी बताती हैं, “छठ ही ऐसा पर्व है जब सब छुआछूत भूल जाते हैं। राजपूत-भूमिहार सब आते हैं, चाय पीते हैं और कहते हैं—मालिक जी, हमरा सूप पहले बना दीजिए।” खगड़िया के संजीव डोम कहते हैं, “छठ में लोग सटकर मनुहार करते हैं, लेकिन बाकी दिन भेदभाव ही है।”
किंवदंती जो जोड़ती है सबको कथा है—भगवान ब्रह्मा की पुत्री छठी मइया ने एक निसंतान रानी को पुत्र वरदान के लिए डोम के सूप में फल-पकवान लाने को कहा। सूर्य भगवान प्रसन्न हुए और परंपरा चली। कोई पुरोहित नहीं, कोई मंत्र नहीं—सिर्फ श्रम और प्रकृति की पूजा। यह डॉ. अंबेडकर के ‘श्रम ही धर्म है’ विचार को जीवंत करता है। छठ में मुस्लिम फल बेचते हैं, कुम्हार चूल्हा बनाते हैं—सबकी एकता।
समस्या: ब्लैक मार्केटिंग और भेदभाव इस बार सूप की कीमतें आसमान छू रही हैं। ग्रामीण इलाकों में ब्लैक मार्केटिंग की शिकायतें हैं। बाकी दिनों डोम को होटलों में अलग कप, मंदिरों से दूर रखा जाता है। भाजपा नेता कृष्ण कुमार आंबेडकर कहते हैं, “छठ में सूर्य सबको समान देखते हैं, लेकिन साल भर का भेदभाव कब खत्म होगा?” बिहार में डोम की आबादी 0.20% है, लेकिन राजनीति-नौकरियों में उपेक्षा।
संदेश: छठ की एकता साल भर रहे जय छठी मइया! यह पर्व बताता है—श्रम पवित्र है, भेदभाव अधर्म। समाज को चाहिए कि छठ की भावना को घाटों से आगे ले जाए। तभी सच्ची आराधना होगी।

