Saadat Hasan Manto/Dus Rupee News: उर्दू के महान कथाकार सआदत हसन मंटो की क्लासिक कहानी ‘दस रुपया’ आज भी समाज के उस काले चेहरे को उजागर करती है, जहाँ गरीबी और मजबूरी के बीच बच्चे की मासूमियत एक सौदे की चीज़ बन जाती है। 1940 के दशक में लिखी गई यह कहानी आज के भारत में बाल यौन शोषण, ट्रैफिकिंग और आर्थिक असमानता के मुद्दों से सीधे जुड़ती है। मंटो ने एक साधारण मोटर की सैर को माध्यम बनाकर पूछा था – क्या ज़िंदगी की मासूमियत की भी कोई कीमत होती है? आज यह सवाल और प्रासंगिक हो गया है।
कहानी का सार: सरिता की मासूम दुनिया
कहानी की नायिका है 10-12 साल की सरिता – एक गरीब परिवार की बेटी, जो लाहौर की गलियों में खेलती-कूदती है।
उसके लिए मोटर कार में घूमना एक सपना है, रोमांच की पराकाष्ठा। लेकिन जब तीन अमीर युवक उसे ‘सैर’ के बहाने ले जाते हैं, तो दस रुपये का नोट उसकी मासूमियत की ‘कीमत’ बन जाता है। मंटो ने बिना किसी अतिरंजना के दिखाया कि कैसे समाज की नज़रों में एक बच्ची का बचपन महज एक वस्तु है। कहानी का अंत खुला है, लेकिन सवाल गहरा: क्या गरीबी मासूमियत को बेचने का बहाना बन सकती है?
मंटो के शब्दों में: “वो दस रुपये का नोट सरिता के हाथ में था, लेकिन उसकी आँखों में कुछ और था – जो शायद कभी लौटकर न आए।”
आज का भारत: आँकड़े जो चीखते हैं
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2023 रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 1.5 लाख बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं, जिनमें 70% से अधिक लड़कियाँ हैं। इनमें से 40% मामले गरीबी और मजबूरी से जुड़े हैं – ठीक मंटो की सरिता जैसे। यूनिसेफ की 2024 रिपोर्ट बताती है कि भारत में 1 करोड़ से अधिक बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं, जिनमें से कई ट्रैफिकिंग के शिकार बनते हैं। कोविड-19 के बाद यह संख्या 20% बढ़ी है।
दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में ‘मोटर की सैर’ आज ‘ऑनलाइन ग्रूमिंग’ और ‘सेक्स टूरिज्म’ में बदल चुकी है। एनजीओ ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के संस्थापक कैलाश सत्यार्थी कहते हैं, “मंटो ने 80 साल पहले जो लिखा, वो आज डिजिटल युग में और खतरनाक हो गया है। दस रुपये अब हजारों में बदल गए हैं, लेकिन मासूमियत की कीमत वही है – शून्य।”
विशेषज्ञों की राय: आईना अब भी टूटा हुआ
साहित्यिक आलोचक डॉ. शम्सुर रहमान फारूकी कहते हैं, “मंटो ने ‘दस रुपया’ में वेश्यावृत्ति की जड़ों को नहीं, बल्कि समाज की संवेदनहीनता को निशाना बनाया। आज भी हम कानून बनाते हैं, लेकिन गरीबी नहीं मिटाते।”
मनोवैज्ञानिक डॉ. राधिका कपूर (AIIMS) बताती हैं, “ऐसे शोषण से बच्चे आजीवन ट्रॉमा में जीते हैं। PTSD, डिप्रेशन और आत्महत्या का खतरा 5 गुना बढ़ जाता है।”
कानूनी ढांचा: कागज पर मजबूत, ज़मीनी हकीकत कमजोर
• POCSO एक्ट 2012: 18 साल से कम उम्र के बच्चे के साथ किसी भी यौन गतिविधि को दंडनीय बनाता है। सजा: 7 साल से उम्रकैद।
• 2024 संशोधन: ऑनलाइन ग्रूमिंग को शामिल किया गया।
• लेकिन चुनौतियाँ: केवल 30% मामलों में FIR, 3% में दोषसिद्धि (NCRB डेटा)। कारण: पुलिस की संवेदनहीनता, परिवार का दबाव और गरीबी।
समाज कहाँ खड़ा है?
सोशल मीडिया पर #MantoRevisited ट्रेंड कर रहा है, जहाँ युवा मंटो की कहानियों को आज के संदर्भ में पढ़ रहे हैं। लेकिन सवाल वही: क्या हमने सरिता को बचाया? या दस रुपये अब भी मासूमियत की कीमत तय करते हैं?
मंटो का आईना आज भी चमक रहा है – बस हम आँखें फेर लेते हैं।

