लेकिन ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसका श्रेय खुद के सर्वेक्षक अलेक्जेंडर कनिंघम को दे दिया। आज, दो सदी बाद, राजघराने के वंशज और इतिहासकार इस अन्याय को सुधारने की मुहिम चला रहे हैं।
सारनाथ, वाराणसी से मात्र 10 किलोमीटर दूर स्थित यह स्थल, बौद्ध धर्म का एक प्रमुख तीर्थ है। यहीं भगवान बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ दिया था। मौर्य सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहां धर्मराजिका स्तूप बनवाया, जो बौद्ध संघ की स्थापना का प्रतीक भी माना जाता रहा था। लेकिन 12वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दिया। जो अवशेष बचे थे, वे 18वीं शताब्दी तक जंगलों और मिट्टी के नीचे दबे रहे।
इसी दौर में बनारस राजघराने के प्रभावशाली सदस्य बाबू जगत सिंह ने कदम उठाया। वे राजा चेत सिंह (बनारस के तत्कालीन महाराजा) के दीवान थे और एक दूरदर्शी प्रशासक। 1793-94 में, जगत सिंह ने सारनाथ के स्तूप टीले पर खुदाई का आदेश दिया। इसका उद्देश्य ईंटें और पत्थर निकालकर शहर में जगत सिंह बाजार बनाने का था। लेकिन खुदाई के दौरान जो मिला, वह बाजार से कहीं ज्यादा मूल्यवान था—अशोक स्तंभ का शेर-मुखी शिखर, प्राचीन बौद्ध मूर्तियां और स्तूप के अवशेष। इन खोजों ने सारनाथ को फिर से वैश्विक पटल पर ला दिया। ब्रिटिश अधिकारी जोनाथन डंकन ने 1794 में इसकी रिपोर्ट लिखी, जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि खुदाई जगत सिंह के निर्देश पर हुई।
फिर भी, औपनिवेशिक इतिहासकारों ने इसे नजरअंदाज कर दिया। 19वीं शताब्दी में अलेक्जेंडर कनिंघम, जो आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के संस्थापक थे, ने सारनाथ का सर्वे किया और श्रेय खुद ले लिया। कनिंघम की रिपोर्ट्स में जगत सिंह का नाम तक नहीं आया। नतीजा? स्कूल की किताबों से लेकर विश्वविद्यालयों तक, सारनाथ की खोज का श्रेय ब्रिटिश सर्वेक्षक को दिया जाने लगा। यह न केवल भारतीय इतिहास की उपेक्षा था, बल्कि बनारस राजघराने के योगदान को मिटाने की साजिश भी।
बनारस राजघराने ने इस अन्याय के खिलाफ कभी हार नहीं मानी। 18वीं शताब्दी में ही राजा चेत सिंह ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ बगावत की थी, जो बनारस संधि (1775) के बाद बढ़े करों का परिणाम थी। जगत सिंह भी इसी परंपरा के वारिस थे—वे 1799 में वजीर अली खान की बनारस विद्रोह (मासेकर ऑफ बनारस) में शामिल हुए, जहां पांच ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या हुई। ब्रिटिशों ने उन्हें सेंट हेलेना द्वीप निर्वासित कर दिया। लेकिन उनकी खोज ने सारनाथ को पुनर्जीवित कर दिया। आज अशोक स्तंभ का शेर-शिखर भारत का राष्ट्रीय चिन्ह है, जो सारनाथ से ही लिया गया।
हाल के वर्षों में यह लड़ाई तेज हुई है। 2023 में ‘द लॉस्ट हीरो ऑफ बनारस: बाबू जगत सिंह’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसके लेखक एच.ए. कुरेशी (भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व अधिकारी) और डॉ. श्रेया पाठक (वसंत महाविद्यालय की सहायक प्रोफेसर) हैं। यह पुस्तक प्राथमिक साक्ष्यों—जैसे डंकन की रिपोर्ट और राजघराने के अभिलेखों—के आधार पर साबित करती है कि खोज जगत सिंह की थी। पुस्तक का विमोचन बीएचयू में हुआ, जहां काशी नरेश के वंशजों ने इसे ऐतिहासिक न्याय का प्रतीक बताया। इतिहासकारों का मानना है कि यह किताब औपनिवेशिक इतिहासलेखन को चुनौती देती है, जहां भारतीय योगदान को हाशिए पर धकेल दिया जाता था।
बनारस राजघराने के वर्तमान प्रतिनिधि, जैसे काशी नरेश अनंत नारायण सिंह, इस मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं। वे कहते हैं, “सारनाथ हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। जगत सिंह की लड़ाई आज भी प्रेरणा देती है कि इतिहास को सही संदर्भ में लिखा जाए।” पर्यटन विभाग भी अब सारनाथ संग्रहालय में जगत सिंह के योगदान को प्रदर्शित करने की योजना बना रहा है।
यह मुद्दा केवल इतिहास का नहीं, बल्कि पहचान का है। बनारस राजघराने की यह लड़ाई हमें याद दिलाती है कि प्राचीन नगरी काशी ने हमेशा ही सत्य की रक्षा की है—चाहे वह बुद्ध के उपदेश हो या आधुनिक इतिहास सुधार। यदि यह प्रयास सफल हुआ, तो स्कूल पाठ्यक्रमों से लेकर पर्यटन मार्गदर्शिकाओं तक में बदलाव आएगा। सारनाथ अब न केवल बौद्ध तीर्थ बनेगा, बल्कि भारतीय गौरव की जीत का प्रतीक भी।

