Bihar Political News: बिहार की राजनीति हमेशा से ही सियासी साजिशों, गठबंधनों और पुराने घावों की जंग का मैदान रही है। 1991 का वह काला दिन आज भी याद किया जाता है, जब लोकसभा चुनावों के दौरान बरह विधानसभा क्षेत्र के पांडराक गांव के एक पोलिंग बूथ पर कांग्रेस समर्थक सीताराम सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस घटना ने न केवल स्थानीय स्तर पर हड़कंप मचा दिया, बल्कि बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी आरोपी की कुर्सी पर बिठा दिया। 27 साल लंबे कानूनी संघर्ष के बाद पटना हाईकोर्ट ने 15 मार्च 2019 को सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया, लेकिन यह मामला आज भी सियासी बहसों का केंद्र बिंदु बना हुआ है।
घटना का पृष्ठभूमि: चुनावी रंजिश और खूनी हमला
16 नवंबर 1991 को बरह लोकसभा सीट पर चुनावी जंग चरम पर थी। नीतीश कुमार, जो तब जनता दल के उभरते हुए नेता थे, इस सीट से उम्मीदवार थे। दूसरी ओर, कांग्रेस समर्थक सीताराम सिंह स्थानीय स्तर पर सक्रिय थे। आरोप लगा कि मतदान के दौरान दोनों पक्षों के बीच तनाव भड़क गया। अचानक हुई फायरिंग में सीताराम सिंह की मौके पर ही मौत हो गई। थाने में दर्ज एफआईआर नंबर 131/1991 में हत्या (आईपीसी धारा 302) और आर्म्स एक्ट के तहत नीतीश कुमार सहित कई लोगों को आरोपी बनाया गया। सीताराम के भाई ढिबर सिंह ने दावा किया कि “नीतीश कुमार ने खुद गोली चलाई थी।” यह आरोप उस समय की तीखी चुनावी दुश्मनी का नतीजा माना जाता रहा है।
हालांकि, शुरुआती जांच में कोई चार्जशीट दाखिल नहीं हुई। नीतीश कुमार ने हमेशा इन आरोपों को साजिश करार दिया, लेकिन मामला दबा नहीं। 2009 में पटना हाईकोर्ट ने स्टे दे दिया, जिसके बाद नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने। उनकी शपथग्रहण एफिडेविट में भी इस केस का जिक्र था, लेकिन 2004 की एफिडेविट में यह गायब था—जिसे विपक्ष ने बाद में छिपाव का सबूत बताया।
2017: आरजेडी का हमला, पुराना घाव फिर ताजा
बिहार की सियासत में गठबंधन टूटे-जुड़ते रहे। 2015 में महागठबंधन के हिस्से के रूप में नीतीश ने आरजेडी के साथ हाथ मिलाया, लेकिन 2017 में बीजेपी के साथ नया गठजोड़ कर लिया। इससे खफा लालू प्रसाद यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव ने पुराना हथियार उठा लिया। तेजस्वी ने ट्वीट कर कहा, “नीतीश कुमार पर हत्या का केस चल रहा है, फिर भी वे मुख्यमंत्री बने हुए हैं। यह बिहार की सियासत पर दाग है।” लालू ने भी सार्वजनिक सभाओं में इसे उठाया।
आरजेडी नेताओं ने नीतीश से इस्तीफे की मांग की और मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने की कोशिश की। 2017 में पटना लाइव जैसे मीडिया आउटलेट्स ने सीताराम के भाई का इंटरव्यू प्रसारित किया, जिसमें उन्होंने कहा, “मेरे भाई की हत्या के 26 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। नीतीश को सजा मिलनी चाहिए।” विपक्ष ने इसे “नीतीश का काला इतिहास” बताकर हमला बोला, लेकिन नीतीश ने इसे “राजनीतिक बदले की कार्रवाई” करार दिया।
2018-2019: निचली अदालत से हाईकोर्ट तक लंबा संघर्ष
2017 के सियासी उथल-पुथल के बाद 2018 में बरह की निचली अदालत ने 27 साल पुराने मामले को cognizance में ले लिया। नीतीश कुमार ने तुरंत हाईकोर्ट में चुनौती दी। जस्टिस ए. अमानुल्लाह की एकल पीठ ने सुनवाई की। अदालत ने कहा, “यह प्रक्रिया पूरी तरह mala fide (दुर्भावनापूर्ण) है। कोई प्राइमा फेसी सबूत नहीं है जो नीतीश कुमार को अपराध से जोड़े। यह उनकी छवि खराब करने की साजिश है।”
15 मार्च 2019 को पटना हाईकोर्ट ने नीतीश के खिलाफ सभी कानूनी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया। फैसले में अदालत ने साफ कहा कि एफआईआर राजनीतिक प्रतिशोध से प्रेरित थी और जांच में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला। नीतीश ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा, “सच हमेशा जीतता है। यह विपक्ष की हार है।”
आज का नजरिया: पुराना केस, नई बहसें
आजादी के 78 साल बाद भी यह मामला बिहार की राजनीति का प्रतीक बना हुआ है। विपक्ष इसे नीतीश की “संदिग्ध नैतिकता” का सबूत मानता है, जबकि समर्थक इसे साजिश बताते हैं। 2025 के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सोशल मीडिया पर यह फिर गरमा रहा है। तेजस्वी जैसे नेता पुराने वीडियो शेयर कर रहे हैं, जबकि नीतीश के पक्षधर हाईकोर्ट के फैसले को हवाला दे रहे हैं।
बिहार जैसे राज्य में जहां कानून व्यवस्था हमेशा सवालों के घेरे में रहती है, यह केस याद दिलाता है कि सियासत के मैदान में पुराने जख्म कभी भरते ही नहीं। सीताराम सिंह का परिवार आज भी न्याय की आस लगाए है, लेकिन अदालत का फैसला अंतिम शब्द कह चुका है। क्या यह बिहार की राजनीति का सबक है या फिर एक और सियासी हथियार? समय ही बताएगा।

