Supreme Court News: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसले में यह स्पष्ट किया है कि आदिवासी महिलाओं और उनके कानूनी उत्तराधिकारियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त है। यह फैसला न केवल लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है, बल्कि 1994 के एक महत्वपूर्ण मामले से प्रेरणा लेता है, जिसने आदिवासी महिलाओं के उत्तराधिकार अधिकारों को मान्यता देने की नींव रखी थी।
1994 में, मधु किश्वर बनाम बिहार राज्य (1996) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार आदिवासी महिलाओं के उत्तराधिकार अधिकारों पर गहन विचार-विमर्श किया था। इस मामले में, बिहार के आदिवासी समुदायों में प्रचलित रीति-रिवाजों को चुनौती दी गई थी, जो महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने से रोकते थे। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 15 (लिंग के आधार पर भेदभाव निषेध) का उल्लंघन करती है।
हालांकि, बहुमत के फैसले में कोर्ट ने रीति-रिवाजों को पूरी तरह से असंवैधानिक घोषित करने से परहेज किया, लेकिन जस्टिस के. रामास्वामी के असहमति वाले मत ने भविष्य के लिए एक प्रगतिशील दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के सामान्य सिद्धांत, जो न्याय, समता और सद्भावना पर आधारित हैं, आदिवासी महिलाओं पर लागू होने चाहिए। उन्होंने जोर दिया कि आदिवासी महिलाओं को अपने माता-पिता, भाई या पति की संपत्ति में पुरुष उत्तराधिकारियों के समान हिस्सा मिलना चाहिए।
मधु किश्वर मामले में जस्टिस रामास्वामी के असहमति वाले मत ने बाद के वर्षों में कई मामलों में संदर्भ बिंदु के रूप में काम किया। 17 जुलाई 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस संजय करोल और जॉयमाल्या बागची की पीठ ने एक मामले में फैसला सुनाया, जिसमें छत्तीसगढ़ की एक आदिवासी महिला, धैया, के कानूनी उत्तराधिकारियों ने अपने नाना की पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी मांगी थी। निचली अदालतों ने दावा खारिज कर दिया था, यह कहते हुए कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 आदिवासी समुदायों पर लागू नहीं होता और कोई रिवाज साबित नहीं हुआ जो महिलाओं को उत्तराधिकार का अधिकार देता हो।
सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण को “पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रह” करार देते हुए खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि जब तक कोई रिवाज स्पष्ट रूप से महिलाओं को संपत्ति से वंचित करने का सबूत न दे, तब तक समानता का सिद्धांत लागू होता रहेगा। कोर्ट ने अनुच्छेद 14 और 15 का हवाला देते हुए कहा कि लिंग के आधार पर उत्तराधिकार से वंचित करना असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण है। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि “रीति-रिवाज भी कानून की तरह समय के साथ स्थिर नहीं रह सकते।”
इस फैसले ने आदिवासी महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकारों को सुनिश्चित करने में एक बड़ा कदम उठाया है। यह न केवल 1994 के मधु किश्वर मामले की प्रगतिशील सोच को आगे बढ़ाता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि आदिवासी समुदायों में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए कानूनी ढांचा मजबूत हो। कोर्ट ने यह भी सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन पर विचार करना चाहिए ताकि इसे आदिवासी समुदायों पर भी लागू किया जा सके।
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