ये याचिकाएं मुख्य रूप से इन कानूनों की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाती हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि ये कानून अंतर-धार्मिक विवाहों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करते हैं, तथा इन्हें अल्पसंख्यकों और अंतर-धार्मिक जोड़ों को परेशान करने के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है। दूसरी ओर, इन कानूनों के समर्थक इन्हें जबरन या छल से होने वाले धर्म परिवर्तन को रोकने का जरूरी कदम मानते हैं।
इस मामले में अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम मंच ने भी कानूनों के समर्थन में हस्तक्षेप याचिका दाखिल की है, जिसे मुख्य याचिकाओं के साथ जोड़कर सुनवाई का आश्वासन दिया गया है।
ये कानून विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नामों से लागू हैं, जैसे उत्तर प्रदेश में ‘उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश/कानून’, उत्तराखंड में ‘फ्रीडम ऑफ रिलिजन एक्ट’ आदि। इनमें विवाह के लिए धर्म परिवर्तन को दंडनीय बनाने और पूर्व अनुमति की जरूरत जैसे प्रावधान हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी इन कानूनों पर नोटिस जारी किए थे और कई हाईकोर्ट्स में लंबित मामलों को खुद ट्रांसफर करने का फैसला लिया था। अब अगली सुनवाई जनवरी में होने से इस मुद्दे पर अंतिम फैसला आने की उम्मीद बढ़ गई है।
यह मामला व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धर्म की आजादी और सामाजिक सद्भाव से जुड़ा होने के कारण काफी संवेदनशील है। दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट का फैसला महत्वपूर्ण होगा।

