प्रथा का स्वरूप और पृष्ठभूमि
FGM, जिसे हिंदी में ‘खतना’ या ‘खफद’ कहा जाता है, एक सांस्कृतिक-धार्मिक रिवाज है जो लड़कियों की यौन इच्छा को नियंत्रित करने और ‘पवित्रता’ प्राप्त करने के नाम पर किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, इसमें क्लिटोरल हुड (जननांग की ऊपरी त्वचा) का आंशिक या पूर्ण हिस्सा काटा जाता है, जो बिना चिकित्सकीय कारण के किया जाता है। भारत में यह प्रथा मुख्यतः शिया इस्लाम के दाऊदी बोहरा संप्रदाय में देखी जाती है, जो देश में लगभग 10 लाख सदस्यों वाला एक समुदाय है। यूनिसेफ की 2024 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बोहरा महिलाओं के 75% से अधिक अपनी बेटियों पर यह प्रथा लागू करती हैं, जो सामाजिक दबाव का परिणाम है।
यह प्रथा अफ्रीकी महाद्वीप के 30 से अधिक देशों में प्रचलित है, लेकिन भारत जैसे एशियाई देशों में भी इसका विस्तार है। वैश्विक स्तर पर WHO इसे ‘गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन’ मानता है, जो लड़कियों में संक्रमण, रक्तस्राव, यौन सुख की हानि और प्रसव जटिलताओं जैसी स्वास्थ्य समस्याएं पैदा करता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान से, अगले दशक में दुनिया भर में 20 लाख अतिरिक्त FGM मामले सामने आ सकते हैं।
याचिका के प्रमुख तर्क: संवैधानिक उल्लंघन
चेतना वेलफेयर सोसाइटी द्वारा एडवोकेट साधना संधू के माध्यम से दायर इस PIL में FGM को ‘असंवैधानिक, भेदभावपूर्ण और अमानवीय’ करार दिया गया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार), अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 15 (भेदभाव निषेध) का स्पष्ट उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट के के.एस. पुट्टास्वामी मामले (निजता का अधिकार) का हवाला देते हुए तर्क दिया गया कि किसी भी व्यक्ति—खासकर नाबालिग लड़की—की शारीरिक अखंडता पर बिना सहमति के हमला अस्वीकार्य है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि FGM धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25-26) के दायरे में नहीं आती, क्योंकि कुरान में इसका कोई उल्लेख नहीं है और कई इस्लामी विद्वान इसका विरोध करते हैं। दाऊदी बोहरा समुदाय के धार्मिक ग्रंथ ‘दाइम अल-इस्लाम’ में इसका समर्थन तो है, लेकिन याचिकाकर्ता इसे ‘सती प्रथा’ जैसी हानिकारक रिवाज से तुलना करते हैं। एडवोकेट अनिल कुमार सिंह श्रीनेत, जो याचिका से जुड़े हैं, ने कहा, “यह प्रथा नहीं, कुप्रथा है। सुप्रीम कोर्ट इसे रोकने की दिशा में कदम उठा सकता है।” वर्तमान में, यह प्रथा भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 113-118 (चोट पहुंचाने) और POCSO अधिनियम के तहत दंडनीय है, लेकिन समर्पित कानून की कमी से जवाबदेही कमजोर पड़ रही है।
समुदाय का पक्ष: धार्मिक परंपरा या स्वास्थ्य लाभ?
दाऊदी बोहरा समुदाय के कुछ सदस्य इसे ‘महिला खतना’ कहकर बचाव करते हैं, दावा करते हुए कि यह केवल ‘छोटा सा कट’ है जो स्वच्छता और धार्मिक पवित्रता के लिए जरूरी है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे ‘समुदाय की आवश्यक धार्मिक प्रथा’ बताया था। हालांकि, समुदाय के अंदर ही कई महिलाएं—जैसे आफिया जफरी और मसूमा एकबाल—इसके खिलाफ आवाज उठा रही हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, बोहरा महिलाओं में 80% से अधिक FGM का अनुभव करती हैं, लेकिन कई इसे छिपाती हैं।
X (पूर्व ट्विटर) पर हाल की चर्चाओं में भी यह मुद्दा गरमाया हुआ है। एक यूजर ने लिखा, “FGM POCSO के तहत अपराध है, लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर जारी है। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप जरूरी।” वहीं, कुछ पोस्ट में इसे ‘हाइजीन के लिए फायदेमंद’ बताया गया, लेकिन WHO और CDC जैसे संगठन स्पष्ट कहते हैं कि FGM के कोई स्वास्थ्य लाभ नहीं, केवल हानि।
वैश्विक और राष्ट्रीय संदर्भ
अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कई अफ्रीकी देशों में FGM पर सख्त प्रतिबंध हैं। भारत में 2017 से एक पुरानी PIL लंबित है, लेकिन नई याचिका ने मुद्दे को ताजा कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2025 में जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की बेंच ने नोटिस जारी करते हुए कहा कि यह बाल अधिकारों का भी मामला है। केंद्र को जनवरी 2026 तक जवाब देना है।
NGO इक्वालिटी नाउ की निदेशक जैकलीन बेटी ने कहा, “यह फैसला महिलाओं की गरिमा के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है।” समानांतर में, सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन जैसी अन्य प्रथाओं पर भी सुधार के संकेत दिए हैं, जो धार्मिक रिवाजों पर न्यायिक हस्तक्षेप की दिशा दिखाते हैं।
आगे की राह: चार महत्वपूर्ण सवाल
एडवोकेट अनिल सिंह श्रीनेत के अनुसार, इस मामले में चार सवाल अहम हैं:
1. क्या FGM नाबालिग लड़कियों की निजता का उल्लंघन है?
2. क्या यह अनुच्छेद 21 के तहत शारीरिक स्वायत्तता का हनन है?
3. क्या यह लिंग-आधारित भेदभाव (अनुच्छेद 14-15) करता है?
4. क्या इसे धार्मिक प्रथा के रूप में संरक्षित किया जा सकता है?
यदि सुप्रीम कोर्ट बाध्यकारी दिशानिर्देश जारी करता है, तो यह भारत में FGM को समाप्त करने की दिशा में बड़ा कदम होगा। विशेषज्ञों का मानना है कि समुदाय के अंदर जागरूकता और कानूनी सुधार ही इसका स्थायी समाधान है। यह लड़ाई न केवल कानूनी, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की भी है—जहां बच्ची का शरीर प्रथा से ऊपर हो।

