चुनाव से पहले नेल्ली नरसंहार की रिपोर्टों से असम में सियासी तूफान

Nellie Massacre/Assam Assembly News: असम विधानसभा के शीतकालीन सत्र के पहले दिन एक पुराना घाव फिर से हरा हो गया। मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने 1983 के नेल्ली नरसंहार से जुड़ी दो महत्वपूर्ण जांच रिपोर्टों को सदन में पेश कर दिया। इनमें टीडी तिवारी आयोग और जस्टिस टीयू मेहता आयोग की रिपोर्टें शामिल हैं, जो 42 वर्षों से धूल खा रही थीं।

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक इस नरसंहार में 1,819 लोग मारे गए थे, लेकिन गैर-सरकारी अनुमानों के अनुसार संख्या 3,000 से अधिक थी। ज्यादातर पीड़ित बांग्लादेशी मूल के बंगाली मुसलमान थे। इस कदम से भाजपा ने आगामी 2026 विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की है, जबकि विपक्ष इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई बता रहा है।

आंदोलन की आग में जलता असम
1983 का नेल्ली नरसंहार असम आंदोलन के चरम दौर में हुआ, जब बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ के खिलाफ ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और ऑल असम गण संग्राम परिषद (AAGSP) का नेतृत्व वाला आंदोलन जोरों पर था। 1979 से चला यह आंदोलन 1985 तक चला, जिसमें राष्ट्रपति शासन कई बार लगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने संवैधानिक बाध्यता का हवाला देकर फरवरी 1983 में विधानसभा चुनाव कराने का फैसला लिया, भले ही राज्य में तनाव चरम पर था। चुनाव आयोग ने भी इसे मंजूरी दी, लेकिन आंदोलनकारियों ने इसका बहिष्कार किया। नतीजा? नेल्ली और आसपास के इलाकों में 48 घंटों में हजारों की हत्या। हिंसा इतनी भयानक थी कि सरकारी मशीनरी भी ठप हो गई।

चुनाव के बावजूद कांग्रेस ने हितेश्वर सैकिया के नेतृत्व में सरकार बनाई। इसके बाद सैकिया सरकार ने रिटायर्ड मुख्य सचिव टीडी तिवारी की अगुवाई में जांच आयोग गठित किया। वहीं, असम फ्रीडम फाइटर्स एसोसिएशन ने जस्टिस टीयू मेहता के नेतृत्व में एक गैर-सरकारी न्यायिक आयोग बनाया। दोनों ने 1984-85 में अपनी रिपोर्टें सौंपीं, लेकिन इन्हें कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। 1985 में प्रफुल्ल महंत सरकार ने इन्हें विधानसभा अध्यक्ष को सौंपा, मगर सदन में नहीं रखा। अब, 40 साल बाद सरमा सरकार ने इन्हें टेबल कर इतिहास का एक काला अध्याय खोल दिया।

विरोधाभासी निष्कर्ष
दोनों रिपोर्टों के निष्कर्ष एक-दूसरे से बिल्कुल उलट हैं, जो सियासी बहस को और गरमा देंगे। तिवारी आयोग (सरकारी) ने स्पष्ट कहा कि हिंसा का मुख्य कारण चुनाव कराना नहीं था। इसके बजाय, दशकों से चली आ रही विदेशी घुसपैठ, भाषाई विवाद और जमीन हड़पने की समस्या जिम्मेदार थीं। आयोग ने AASU और AAGSP पर आरोप लगाया कि उन्होंने चुनाव रोकने के लिए सुनियोजित तरीके से आगजनी, दंगे भड़काए और सरकारी संपत्ति (जैसे रेल ट्रैक, पुल) को नुकसान पहुंचाया। आयोग के पास 106 सरकारी और 151 गैर-सरकारी गवाहों के बयान थे, जिनमें से 126 लोगों को NSA के तहत हिरासत में लिया गया था। हालांकि, आयोग ने माना कि तत्कालीन DGP (स्पेशल ब्रांच) ने चुनावी मशीनरी की कठिनाइयों की चेतावनी दी थी।

दूसरी ओर, मेहता आयोग (गैर-सरकारी) ने कांग्रेस सरकार पर सीधा आरोप लगाया था। रिपोर्ट में कहा गया कि 1983 में चुनावी माहौल बिल्कुल अनुकूल नहीं था, जिसकी जानकारी केंद्र, राज्य सरकार और चुनाव आयोग को थी। कांग्रेस ने अन्य दलों के बहिष्कार का फायदा उठाकर सत्ता हथियाने की साजिश रची। आयोग ने इसे ‘सामूहिक हत्या का तात्कालिक कारण’ बताया। दोनों रिपोर्टों में एक समानता यह है कि बांग्लादेशी घुसपैठ को समस्या की जड़ माना गया, जिसे भाजपा अब 2026 चुनावों का प्रमुख मुद्दा बनाने की तैयारी कर रही है।

सियासी संदेश
मुख्यमंत्री सरमा ने सदन में रिपोर्ट पेश करते हुए कहा, “यह ऐतिहासिक दिन है जब सच्चाई सामने आ रही है।” उन्होंने कांग्रेस पर ‘सत्ता की भूख में असम को जलाने’ का आरोप लगाया। विपक्षी कांग्रेस ने इसे ‘राजनीतिक स्टंट’ बताते हुए कहा कि भाजपा पुरानी रिपोर्टों से वर्तमान मुद्दों से भटकाने की कोशिश कर रही है। असम कांग्रेस अध्यक्ष भुपेन कुमार बोरा ने कहा, “1983 की त्रासदी को फिर से उछालना पीड़ितों का अपमान है।” विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम भाजपा की ‘घुसपैठ विरोधी’ छवि को मजबूत करेगा, खासकर बंगाली मुसलमान वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए।

नेल्ली नरसंहार आज भी असम की सामाजिक संरचना पर साया डाले हुए है। रिपोर्टों के सार्वजनिक होने से शायद न्याय की प्रक्रिया तेज हो, लेकिन सवाल वही है: इतने सालों बाद क्या बदलाव आएगा? असम विधानसभा का यह सत्र पांच दिनों का है, जहां इस मुद्दे पर बहस जारी रहेगी।

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