शिवकुमार का ‘अब या कभी नहीं’ दांव
डीके शिवकुमार, जो कर्नाटक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं, ने इस संकट को एक बड़ा दांव बना लिया है। 2023 के विधानसभा चुनाव जीतने के बाद पार्टी ने सिद्धारमैया को सीएम बनाया था, लेकिन कथित तौर पर यह तय हुआ था कि 2.5 साल बाद कुर्सी शिवकुमार को मिलेगी। शिवकुमार का दावा है कि उनके पास 135 विधायकों में से 56 का समर्थन है। वे पार्टी को पूरे कर्नाटक और दूसरे राज्यों में फंडिंग करने वाले ‘ऑर्गनाइजेशन मैन’ के रूप में अपनी भूमिका का हवाला देते हैं।
पिछले हफ्ते, शिवकुमार के करीब 10 विधायक दिल्ली पहुंचे और हाईकमान से मिड-टर्म चेंज की मांग की। सोशल मीडिया पर भी उनकी टीम सक्रिय रही, जहां पोस्ट्स में ‘नवंबर क्रांति’ जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे थे। लेकिन शिवकुमार जानते हैं कि यह दांव जोखिम भरा है। अगर वे सरकार गिराने की कोशिश करते हैं, तो बीजेपी के साथ गठबंधन का खतरा मंडरा रहा है, जो उनके लिए राजनीतिक आत्महत्या जैसा होगा। हाल ही में बिहार चुनावों में हार के बाद हाईकमान कमजोर पड़ चुका है, और शिवकुमार इसी मौके का फायदा उठा रहे हैं।
29 नवंबर को सिद्धारमैया के आवास ‘कावेरी’ पर हुए ब्रेकफास्ट मीटिंग में शिवकुमार ने कहा, “हम हाईकमान के फैसले का पालन करेंगे। 2028 के चुनाव हमारा एजेंडा है।” लेकिन स्रोत बताते हैं कि यह मीटिंग महज दिखावा थी। 2 दिसंबर को शिवकुमार के घर पर दूसरी ब्रेकफास्ट मीटिंग होनी है, जहां शायद कोई ठोस फैसला हो।
सिद्धारमैया का मजबूत पलड़ा
दूसरी तरफ, सिद्धारमैया का पलड़ा भारी है। वे ओबीसी कुरुबा समुदाय से हैं और अहिंडा (ओबीसी, दलित, अल्पसंख्यक) गठबंधन के जाने माने चेहरे माने जाते हैं। राहुल गांधी की ‘बैकवर्ड क्लास पॉलिटिक्स’ और जातिगत जनगणना की वकालत से उनका कद और बढ़ गया है। सिद्धारमैया को विधायकों का बहुमत समर्थन है, और उनकी छवि एक ‘मास लीडर’ की है, हालांकि इस कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपों (जैसे उनकी पत्नी पर) ने थोड़ी साख खराब की है।
सिद्धारमैया का कहना है कि कोई ‘रोटेशनल फॉर्मूला’ कभी तय ही नहीं हुआ। वे कहते हैं, “हमने साथ मिलकर 2023 का चुनाव जीता, साथ ही 2028 भी लड़ेंगे।” ब्रेकफास्ट मीटिंग के बाद उन्होंने मीडिया से कहा, “कोई मतभेद नहीं है। हाईकमान जो कहेगा, वही मानेंगे।” स्रोतों के मुताबिक, वे अपना कार्यकाल पूरा करने के लिए जनवरी 7 (जब वे सबसे लंबे समय तक सीएम रहने वाले होंगे) या मार्च के बजट सेशन तक इंतजार कर सकते हैं। यहां तक कि 2028 तक टालने की कोशिश भी हो सकती है, जैसा राजस्थान में अशोक गहलोत ने किया था।
हाईकमान की लाचारी
कांग्रेस हाईकमान की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह आंतरिक विद्रोह को काबू नहीं कर पा रहा। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में रोटेशनल फॉर्मूला निभाने में नाकाम रहने के बाद वहां हार गई, और अब कर्नाटक में वही कहानी दोहराई जा रही है। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कथित तौर पर दोनों नेताओं से कहा, “2023 का वादा निभाओ, वरना मेरी साख दांव पर लग जाएगी।” लेकिन बिहार हार के बाद राहुल गांधी की लीडरशिप पर सवाल उठ रहे हैं, जिससे हाईकमान बेबस नजर आ रहा है।
कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल की मध्यस्थता से ब्रेकफास्ट मीटिंग्स हुईं, लेकिन मूल मुद्दा अनसुलझा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह फॉर्मूला आधुनिक राजनीति में काम नहीं करता—जम्मू-कश्मीर में 2005 के अलावा कहीं सफल नहीं हुआ। कर्नाटक आईटी हब होने के बावजूद यह अस्थिरता बीजेपी-जेडीएस गठबंधन के लिए फायदेमंद है।
जनता का असंतोष
इस कलह का असर जनता पर भी पड़ रहा है। सीवोटर सर्वे के मुताबिक, 2024 की शुरुआत में सरकार की संतुष्टि 39% थी, जो नवंबर 2025 तक 42% असंतोष में बदल गई। लोग विकास पर सवाल उठा रहे हैं। सोशल मीडिया पर #KarnatakaCongressCrisis ट्रेंड कर रहा है, जहां यूजर्स हाईकमान की आलोचना कर रहे हैं। एक पोस्ट में लिखा गया, “कांग्रेस को विधानसभा भंग कर शिवकुमार को सीएम कैंडिडेट बनाकर चुनाव लड़ना चाहिए।”
भविष्य की चुनौतियां
2026-28 के चुनावों पर संकट
यह संकट कर्नाटक को बीजेपी के दक्षिणी विस्तार के खिलाफ कांग्रेस का गढ़ माना जाता है, लेकिन अगर जल्द न सुलझा, तो 2026 के लोकसभा और 2028 के विधानसभा चुनावों में भारी नुकसान हो सकता है। हाईकमान कैबिनेट रीशफल या ऑर्गनाइजेशनल चेंजेस पर विचार कर रहा है, लेकिन सिद्धारमैया का जाना आसान नहीं। पीएम मोदी का दावा कि ‘कांग्रेस जल्द बंट जाएगी’ हकीकत बन सकता है।
कांग्रेस के लिए यह सबक है कि आंतरिक एकता बिना सत्ता टिकी नहीं रह सकती। सिद्धारमैया-शिवकुमार की ‘ब्रदरली’ तस्वीरें तो बन रही हैं, लेकिन असली परीक्षा हाईकमान के फैसले में है। कर्नाटक की जनता इंतजार कर रही है—क्या यह संकट खत्म होगा या और गहराएगा?

