रात के लगभग 12 बज रहे लखनऊ शहर के बड़ा इमामबाड़ा मोहर्रम पर मातम माना जा रहा था। मौका बेशक मातम का है, मगर बड़ा इमामबाड़ा एलईडी लाइट और लड़ियों से रोशन है। एलईडी की रोशनी से रोशन इस इस्लामिक ऐतिहासिक इमारत में लाखों की तादाद में भीड़ जमा है। ठीक बीचों-बीच हरी घास का एक गोलाकार पार्क है। यहां लकड़ियां जल रही थी बाद में पता चला कि इन लकड़ियों से बनने वाले अगारों पर चला जाएंगा।
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यहा मौजूद मीडियावालों को पार्क के अंदर जाने के लिए कह दिया जाता है। सभी उस पार्क की तरफ बढ़ने लगते है। पार्क में कई घंटे से जल रही लकड़ियां अब कोयला होकर अंगारे में बदल चुकी हैं। इमामबाड़े के पार्क में लोग अंगारों का बिस्तर बना रहे हैं। बीच में अंगारे और आसपास रेत का बिस्तर दिखाई देने लगा।
जब सब कुछ तैयार हो गया तो हरे रंग की छतरियों तले तैनात काले और हरे रंग के कपड़ों में हर उम्र के लोग यहां आकर अंगारों पर चलने लगते हैं। कुछ लोगों ने तो गोद में छोटे बच्चों को भी लिया हुआ है। उन्हें फिक्र नहीं कि छोटा बच्चा अगर हाथ से फिसल कर अंगारों पर गिर जाए तब क्या होगा। लोग आते जा रहे हैं और आंखें बंद किए हुए ‘या हुसैन’ बोलकर अंगारों पर चलते जा रहे हैं। आपको बता दें कि मोहर्रम के मौके पर 10 दिन तक मातम चलता है। शिया मुस्लिम पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत का गम मनाते हैं। इमाम हुसैन कर्बला के मैदान में अपने साथियों के साथ शहीद हो गए थे। यहां हर दिन अलग-अलग रस्में की जाती हैं।
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लखनऊ की अजादारी पूरी दुनिया में मशहूर है। इस वजह से यहां देश-विदेश से लोग इस मौके पर आते हैं। कहा जाता है कि जब लखनऊ अवध की राजधानी थी, तब यहां के नवाब और बादशाह शिया थे। उनके राज में यहां अजादारी की अनोखी और भव्य रस्में शुरू की गई थीं। इनमें से एक है आग का मातम। यानी अंगारों पर चलकर इमाम हुसैन की शहादत को याद किया जाता है। इमाम हुसैन की शहादत के नौहा यानी गीत गा रहे हैं। जैसे-जैसे गीत की लय ऊंची होती जा रही है उनमें जोश भी बढ़ रहा है। यह लगातार खुद को मारते जा रहे हैं, गोलाकार भीड़ जमा होती जा रही है।
जब जय हिन्द जनाब ने उससे पूछा कि दर्द नहीं होता है? यहा मौजूद जैनुअल कहते हैं, ‘दर्द ही तो नहीं होता है। बचपन से ही इसमें शामिल होने का जुनून होता है। एक बात याद रखें कि यह कोई प्रैक्टिस नहीं है बल्कि आस्था है। आस्था ऐसी कि तलवारों से अपना सिर लहूलुहान करते हैं।’