मासिक धर्म-एक मौन पीड़ा, गरीबी और संघर्ष की अनसुनी कहानियाँ

Daughters of the Kaimur Hills News: बिहार के कैमूर पहाड़ी इलाके की दुर्गम वादियों में रहने वाली लड़कियाँ रोज़ाना ऐसी चुनौतियों से जूझ रही हैं, जिनके बारे में शहरी भारत शायद ही कभी सोचता हो। हाल ही में एक टीम ने इस क्षेत्र की कुछ युवा लड़कियों से मुलाकात की, जहाँ उन्होंने खुलकर अपनी ज़िंदगी की हकीकत बयां की। सैनिटरी पैड्स की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, स्कूल और अस्पताल पहुँचने में आने वाली मुश्किलें—ये सब उनकी रोज़मर्रा की जंग का हिस्सा हैं। ये कहानियाँ बिहार के सबसे उपेक्षित क्षेत्रों में लड़कियों के जीवन की झलक पेश करती हैं।

एक मौन पीड़ा
लड़कियों ने बताया कि मासिक धर्म के दौरान सैनिटरी पैड्स उपलब्ध नहीं होते। ग्रामीण बाजारों में ये महंगे हैं और पहाड़ी रास्तों के कारण आसानी से नहीं पहुँच पाते। “हम पुराने कपड़े इस्तेमाल करती हैं, जो बार-बार धोने पड़ते हैं। संक्रमण का डर रहता है, लेकिन क्या करें?” एक 14 वर्षीय लड़की ने शर्माते हुए कहा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट्स के अनुसार, भारत में ग्रामीण क्षेत्रों की 60% से अधिक लड़कियाँ मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन (Menstrual Hygiene Management) की सुविधाओं से वंचित हैं। कैमूर में यह आँकड़ा और भी बदतर है, जहाँ सरकारी योजनाएँ जैसे ‘किशोरी शक्ति योजना’ या ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन’ के तहत पैड वितरण अनियमित हैं।

स्वास्थ्य और शिक्षा की दुश्वारियाँ
क्षेत्र की लड़कियाँ स्कूल जाने के लिए 5-10 किलोमीटर पैदल चलती हैं। पहाड़ी रास्ते, जंगली जानवर और मौसम की मार उन्हें रोकती है। “बारिश में रास्ते कीचड़ भरे हो जाते हैं, स्कूल मिस हो जाता है,” एक अन्य लड़की ने बताया। बिहार शिक्षा विभाग के आँकड़ों से पता चलता है कि कैमूर जिले में लड़कियों की ड्रॉपआउट दर माध्यमिक स्तर पर 25% से ऊपर है, मुख्य कारण दूरी और स्वास्थ्य समस्याएँ। अस्पताल तो और दूर—नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) भी 15-20 किमी दूर।

गर्भावस्था, एनीमिया या सामान्य बीमारियों में इलाज के लिए रोहतास या वाराणसी जाना पड़ता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) के अनुसार, बिहार में ग्रामीण महिलाओं में एनीमिया की दर 63% है, जो कैमूर जैसे क्षेत्रों में और बढ़ जाती है।

गरीबी का बोझ और दृढ़ता की मिसाल
ये लड़कियाँ गरीबी से जूझते हुए भी हार नहीं मानतीं। घरेलू काम, खेतों में मदद और पढ़ाई—सब कुछ संभालती हैं। “हम डॉक्टर या टीचर बनना चाहती हैं, लेकिन संसाधनों की कमी रोकती है,” उन्होंने कहा। स्थानीय एनजीओ जैसे ‘प्रथम’ और ‘सेव द चिल्ड्रन’ कभी-कभी कैंप लगाते हैं, लेकिन ये प्रयास अपर्याप्त हैं। बिहार सरकार की ‘मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना’ के तहत लड़कियों को प्रोत्साहन राशि मिलती है, मगर जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन कमजोर है।

ये कहानियाँ हेडलाइंस से दूर हैं, लेकिन ये बिहार की असली तस्वीर हैं। कैमूर की इन बेटियों की आवाज़ को सुनकर नीति-निर्माताओं को जगना चाहिए। सड़कें, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और स्वच्छता सुविधाएँ—ये बुनियादी जरूरतें हैं, जो इनकी जिंदगी बदल सकती हैं। उनकी दृढ़ता प्रेरणा देती है, लेकिन बदलाव की जिम्मेदारी हमारी है।

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