यह फैसला पर्यावरणविदों और स्थानीय लोगों के व्यापक विरोध के बीच आया है, जिन्हें आशंका थी कि इस परिभाषा से अरावली के निचले हिस्सों में खनन और निर्माण गतिविधियां बढ़ सकती हैं, जिससे क्षेत्र की पारिस्थितिकी को गंभीर नुकसान पहुंचेगा। अरावली पहाड़ियां दिल्ली-एनसीआर की हवा की गुणवत्ता, भूजल संरक्षण और थार मरुस्थल के विस्तार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने स्वत: संज्ञान (सuo motu) लेते हुए मामले की सुनवाई की। कोर्ट ने कहा कि परिभाषा को लेकर कुछ स्पष्टीकरण जरूरी हैं और इस मुद्दे की दोबारा जांच के लिए एक नई उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति गठित की जाएगी। इस समिति में पर्यावरण मंत्रालय, वन सर्वेक्षण संस्थान, भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और संबंधित राज्यों के प्रतिनिधि शामिल हो सकते हैं।
कोर्ट ने सभी पक्षकारों को नोटिस जारी किया है और मामले की अगली सुनवाई 21 जनवरी 2026 को तय की है। तब तक नवंबर वाले आदेश और समिति की सिफारिशें लागू नहीं होंगी।
पृष्ठभूमि
नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय की समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर एक समान वैज्ञानिक परिभाषा स्वीकार की थी। इससे पहले अरावली की परिभाषा को लेकर राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली में अलग-अलग मानक थे, जिससे खनन और संरक्षण संबंधी विवाद बढ़ रहे थे।
हालांकि, नई परिभाषा पर पर्यावरणविदों ने तीव्र आपत्ति जताई, क्योंकि इससे अरावली के बड़े हिस्से संरक्षण से बाहर हो जाते।
कोर्ट ने पहले खनन पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया था, बल्कि सतत खनन प्रबंधन योजना (MPSM) तैयार करने के निर्देश दिए थे। लेकिन आज के फैसले से सभी अनिश्चितताएं दूर होने तक स्थिति पूर्ववत रहेगी।
यह मामला अरावली के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि कोर्ट का यह कदम पारिस्थितिकी की रक्षा की दिशा में सकारात्मक है।

