मद्रास हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला, रेरा कानून में स्थायी निषेधाज्ञा का कोई प्रावधान नहीं, डेवलपर सिविल कोर्ट में ढूंढ सकता है न्याय

Madras High Court: रियल एस्टेट डेवलपर्स के लिए एक राहत भरी खबर आ रही है। मद्रास हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि रियल एस्टेट (रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट) एक्ट, 2016 (रेरा) के तहत स्थायी निषेधाज्ञा (परमानेंट इंजंक्शन) का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए, डेवलपर्स ऐसी राहत के लिए सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं, भले ही मामला रियल एस्टेट विवाद से जुड़ा हो। यह फैसला मेट्रो जोन अपार्टमेंट ओनर्स एसोसिएशन बनाम ओजोन प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड मामले में जस्टिस पी.बी. बालाजी की बेंच ने सुनाया है।

मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद चेन्नई के एक अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स से जुड़ा है, जहां मेट्रो जोन अपार्टमेंट ओनर्स एसोसिएशन (खरीदारों का संगठन) ने डेवलपर ओजोन प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड के खिलाफ सिविल कोर्ट में दायर मुकदमे को चुनौती दी थी। डेवलपर ने एक निश्चित प्लॉट पर अपनी कब्जे को बरकरार रखने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की थी, ताकि खरीदार उसे बाधित न कर सकें। खरीदारों ने तर्क दिया कि रेरा की धारा 79 के तहत रेरा ट्रिब्यूनल्स को ही रियल एस्टेट विवादों पर विशेष अधिकार क्षेत्र प्राप्त है, इसलिए सिविल कोर्ट का मुकदमा खारिज हो जाना चाहिए। सिविल कोर्ट ने खरीदारों की यह याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट में रिवीजन याचिका दायर की।

कोर्ट के प्रमुख अवलोकन और फैसला
हाईकोर्ट ने रेरा एक्ट की धाराओं 36, 37 और 40 का गहन विश्लेषण किया। कोर्ट ने पाया कि ये धाराएं केवल अंतरिम प्रतिबंधों, निर्देशों और आदेशों के प्रवर्तन से संबंधित हैं, लेकिन स्थायी निषेधाज्ञा जैसी सामान्य कानूनी समानता वाली राहत का कोई उल्लेख नहीं है। जस्टिस बालाजी ने फैसले में कहा, “रेरा एक्ट की किसी भी धारा के तहत वादी (डेवलपर) को स्थायी निषेधाज्ञा जैसी सामान्य कानूनी समानता वाली राहत उपलब्ध नहीं है। इसलिए, डेवलपर द्वारा दायर सिविल मुकदमा निश्चित रूप से बनाए रखा जा सकता है और इसे सीपीसी की ऑर्डर VII रूल 11(डी) के तहत कानून द्वारा प्रतिबंधित मानकर खारिज नहीं किया जा सकता।”

कोर्ट ने विभिन्न हाईकोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसलों का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि रेरा की धारा 79 सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को केवल उन मामलों में रोकती है, जिन पर रेरा ट्रिब्यूनल्स को विशेष रूप से अधिकार दिए गए हों। चूंकि स्थायी निषेधाज्ञा रेरा के दायरे से बाहर है, इसलिए सिविल कोर्ट में ऐसा मुकदमा दायर करना वैध है। कोर्ट ने खरीदारों की उस दलील को भी खारिज कर दिया कि डेवलपर का मुकदमा उनके रेरा शिकायत से जुड़ा है, क्योंकि दोनों के कारण अलग-अलग हैं।

निहितार्थ और प्रभाव
यह फैसला रियल एस्टेट क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि रेरा ट्रिब्यूनल्स के पास विवादों के अधिकांश मामलों पर अधिकार होने के बावजूद, सामान्य कानूनी उपचार जैसे स्थायी निषेधाज्ञा के लिए सिविल कोर्ट अभी भी उपलब्ध हैं। इससे डेवलपर्स को अतिरिक्त सुरक्षा मिलेगी, खासकर संपत्ति कब्जे या बाधा रोकने जैसे मामलों में। विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय रेरा कानून की सीमाओं को रेखांकित करता है और सिविल कोर्ट की भूमिका को मजबूत बनाता है।

मामले में याचिकाकर्ताओं (खरीदारों) का प्रतिनिधित्व एडवोकेट एन. नंदकुमार ने किया, जबकि डेवलपर की ओर से टाटवा लीगल के एडवोकेट आर. वेंकटरामन ने पैरवी की। हाईकोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही ठहराया।
यह फैसला रियल एस्टेट निवेशकों और डेवलपर्स दोनों के लिए एक पूर्वाग्रह है, जो भविष्य में विवादों के समाधान में दिशा प्रदान करेगा।

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