Controversy over food during festivals: भारत जैसे बहुलवादी देश में त्योहारों का मौसम खुशियों का प्रतीक होता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इन पर्वों के दौरान खाने-पीने की आदतों को लेकर विवादों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। नवरात्रि में नॉन-वेज पर सवाल, दीवाली पर पटाखों की बहस, या बकरीद पर गोमांस की राजनीति—ये मुद्दे अक्सर सांप्रदायिक रंग ले लेते हैं। क्या ये सब सिर्फ राजनीतिक साजिश है, या समाज की गहरी सांस्कृतिक और धार्मिक जड़ों से जुड़ा है? इस पर विशेषज्ञों की राय बंटी हुई है।
हाल ही में शारदीय नवरात्रि के दौरान दिल्ली के कई इलाकों में कुट्टू के आटे में मिलावट के कारण 150-200 लोग बीमार पड़ गए, जिनमें से कई को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। आम आदमी पार्टी (AAP) ने इसे बीजेपी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा, “सैकड़ों सनातनी हिंदू मिलावटी कुट्टू का आटा खाने से आज अस्पताल में दाखिल हैं।” यह घटना न केवल स्वास्थ्य चिंता पैदा करती है, बल्कि त्योहारों के दौरान खान-पान की पवित्रता पर सवाल भी खड़े करती है। इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट की कैंटीन में नवरात्रि के समय नॉन-वेज फूड परोसने की बहाली पर वकीलों ने विरोध जताया, दावा किया कि यह “अन्य लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है।”
ये विवाद नए नहीं हैं। गोमांस पर प्रतिबंध को लेकर असम सरकार का हालिया फैसला—जिसमें होटलों और सार्वजनिक स्थानों पर बीफ परोसने पर रोक लगाई गई—ने पूरे देश में बहस छेड़ दी। मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने इसे सांस्कृतिक संरक्षण का नाम दिया, लेकिन विपक्ष ने इसे राजनीतिक ध्रुवीकरण का हथियार बताया। कुछ राज्यों जैसे तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में बीफ का सेवन सामान्य है, जबकि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में गोहत्या पर सख्ती है। नवरात्रि के दौरान दिल्ली में बीजेपी नेता परवेश वर्मा के मांस की दुकानें बंद करने के बयान ने भी विपक्ष को मौका दिया, जहां उन्होंने इसे “अमान्य हस्तक्षेप” करार दिया।
सोशल मीडिया पर भी ये मुद्दे गरमाते रहते हैं। एक पोस्ट में यूजर ने लिखा, “होली को भी नफरती रंग में रंग दिया गया। भाजपा ने मस्जिदों पर तिरपाल डालने की बजाय सद्भाव को तोड़ा।” वहीं, एक अन्य यूजर ने शाकाहारी “आतंकवाद” का जिक्र करते हुए कहा कि यह जातीय वर्चस्व स्थापित करने का तरीका है, न कि पर्यावरण संरक्षण का। बिहू, ओणम जैसे त्योहारों को “स्थानीय सांस्कृतिक आयोजन” बताकर उनके हिंदू मूल को कमजोर करने की कोशिशों पर भी बहस छिड़ी है।
इन विवादों के बीच, क्या ये सिर्फ राजनीतिक कारणों से उपजते हैं? विशेषज्ञों का मानना है कि हां, काफी हद तक। बीजेपी-आरएसएस की ओर से हिंदुत्व के नाम पर शाकाहार को बढ़ावा देना विपक्ष को ध्रुवीकरण का आरोप लगाने का मौका देता है। लेकिन सांस्कृतिक कारक भी कम नहीं—जैसे बाजारवाद ने त्योहारों को उपभोक्तावादी बना दिया है, जहां दिखावा और महंगे तोहफे मूल भावना को दबा रहे हैं। एक पोस्ट में कहा गया, “बाजारवाद ने त्योहारों की आत्मीयता को चुरा लिया, अब ये सिर्फ व्यावसायिक जाल हैं।”
इस मुद्दे पर रोशनी राजाराम की राय खास तौर पर प्रासंगिक है। लंदन से पत्रकारिता की डिग्री लेने के बाद IIM इंदौर से प्रबंधन में पोस्ट ग्रेजुएट सर्टिफिकेट हासिल करने वाली रोशनी ने भारतीय विद्या भवन से ज्योतिष आचार्य की शिक्षा भी ली है। एक कम्युनिकेशन एक्सपर्ट और लेखिका के रूप में, वे मीडिया की भूमिका पर गहराई से लिखती हैं। उनकी किताब “द वल्चर’स फीस्ट” में पत्रकारिता के अंधेरे पक्ष को उजागर किया गया है, जहां वे पूछती हैं, “क्या पत्रकारों को आत्ममंथन की जरूरत है?” त्योहारों के खान-पान विवादों पर रोशनी का मानना है कि ये राजनीतिकरण से कहीं ज्यादा हैं—ये सांस्कृतिक पहचान और मीडिया की सनसनीखेज रिपोर्टिंग का नतीजा हैं। ज्योतिष की नजर से देखें तो, ये विवाद ग्रहों की चाल से जुड़े हैं, जहां शनि और राहु की दशा सामाजिक तनाव बढ़ाती है। लेकिन वे जोर देती हैं कि असली समस्या राजनीतिक दलों की है, जो भावनाओं का शोषण कर वोट बैंक बनाते हैं। “त्योहार सबके हैं, इन्हें विभाजन का हथियार न बनाएं,” रोशनी कहती हैं। उनकी नजर में, बाजारवाद ने तो त्योहारों को ही बदल दिया है—पहले आत्मीयता थी, अब दिखावा।
रोशनी की ये बातें हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। क्या समय आ गया है कि हम त्योहारों को राजनीति से दूर रखें और सच्ची गंगा-जमुनी तहजीब को मजबूत करें? एक पोस्ट में कहा गया, “ईद पर सेवईं हिंदू घरों में जाती थीं, दिवाली पर मिठाई मुस्लिम परिवारों में—ये ही हमारी असली ताकत है।” विवादों के बीच, शायद यही संदेश त्योहारों की सच्ची रोशनी है।

