India after Independence News: 15 अगस्त, 1947 को भारत ने औपनिवेशिक शासन से आजादी हासिल की थी। यह वह दिन था जब देश ने एक नए युग की शुरुआत की, एक ऐसा भारत बनाने का सपना देखा गया जो समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक समानता पर आधारित हो। लेकिन 78 साल बाद भी भारतीय राजनीति का मुख्य आधार मंदिर-मस्जिद और जात-पात जैसे मुद्दे क्यों बने हुए हैं? क्यों प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के एजेंडे में हिंदू-मुसलमान का ध्रुवीकरण अभी भी प्रमुखता से दिखाई देता है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें इतिहास, सामाजिक संरचना और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की गहराई में जाना होगा।
विभाजन की छाया
भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ, जिसने हिंदू-मुसलमान के बीच एक गहरी खाई पैदा की। बाबरी मस्जिद और राम मंदिर विवाद जैसे मुद्दों ने 1990 के दशक में भारतीय राजनीति को सांप्रदायिक रंग दे दिया। 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसके बाद हुए दंगों ने देश में सामुदायिक तनाव को बढ़ाया। 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ किया, लेकिन इसके बाद भी मंदिर-मस्जिद विवाद थमे नहीं। वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह, और हाल ही में संभल की जामा मस्जिद जैसे मामले बार-बार सुर्खियों में आ रहे हैं।
इन विवादों को हवा देने में कुछ राजनीतिक दल और संगठन सक्रिय रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में मंदिर-मस्जिद विवादों को अनावश्यक बताते हुए कहा कि राम मंदिर आस्था का विषय था, लेकिन बार-बार ऐसे मुद्दों को उठाकर समाज को बांटना ठीक नहीं है। फिर भी, कुछ संगठन और नेता इन मुद्दों को ‘हिंदू एकता’ और ‘सांस्कृतिक न्याय’ के नाम पर उभारते रहते हैं, जिससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बल मिलता है।
जात-पात, सामाजिक संरचना का अभिशाप
जाति व्यवस्था भारत की सामाजिक संरचना का एक गहरा हिस्सा रही है। आजादी के बाद संविधान ने जातिगत भेदभाव को खत्म करने की कोशिश की, लेकिन राजनीति में जाति एक शक्तिशाली हथियार बनी रही। विभिन्न पार्टियां वोट बैंक की राजनीति के लिए जातिगत समीकरणों का सहारा लेती हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां जाट, यादव, दलित और अन्य जातियों का प्रभाव मजबूत है, राजनीतिक दल इन समुदायों को लामबंद करने के लिए जातिगत पहचान को बढ़ावा देते हैं।
उदाहरण के तौर पर, उत्तर प्रदेश विधानसभा के मॉनसून सत्र में जनसत्ता दल के नेता रघुराज प्रताप सिंह (राजा भैया) ने आतंकवाद को सबसे बड़ा खतरा बताते हुए जाति की राजनीति पर तंज कसा। उन्होंने कहा कि आतंकवादी हमले में जाति नहीं पूछी जाती, फिर भी राजनीति में जातिगत विभाजन को बढ़ावा दिया जाता है। यह बयान दर्शाता है कि जाति का मुद्दा आज भी राजनीति में गहराई से जुड़ा हुआ है।
हिंदू-मुसलमान एजेंडा, राजनीतिक रणनीति
हिंदू-मुसलमान का ध्रुवीकरण राजनीति में एक सुनियोजित रणनीति के रूप में सामने आता है। 2024 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, लेकिन सांप्रदायिक मुद्दों ने उनकी राजनीति में अहम भूमिका निभाई। अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन ने बीजेपी को हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने का मौका दिया, लेकिन इसके बावजूद फैजाबाद लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी की जीत ने यह दिखाया कि ध्रुवीकरण की रणनीति हमेशा सफल नहीं होती।
वहीं, मुस्लिम समुदाय को अक्सर विकास की मुख्यधारा से अलग-थलग महसूस होता है। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बाद वहां के मुस्लिम समुदाय ने शिकायत की कि वे शहर के आर्थिक विकास से वंचित रह गए हैं। मस्जिद निर्माण के लिए आवंटित जमीन पर अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई, जिससे मुस्लिम समुदाय में असंतोष बढ़ा है।
सरकारों का रवैया, मंदिरों पर नियंत्रण और विवाद
एक तरफ मंदिर-मस्जिद विवादों को हवा दी जा रही है, वहीं हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का मुद्दा भी चर्चा में है। भारत में करीब 4 लाख मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं, जिनकी आय का उपयोग सरकार सामाजिक और अन्य कार्यों के लिए करती है। यह सवाल उठता है कि जब मस्जिदों और चर्चों पर ऐसा नियंत्रण नहीं है, तो मंदिरों पर क्यों? इस मुद्दे को लेकर हिंदू संगठन मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग कर रहे हैं, जिसे वे धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन मानते हैं।
क्यों नहीं टूट रहा यह चक्र?
1. वोट बैंक की राजनीति: मंदिर-मस्जिद और जात-पात के मुद्दे वोट बैंक को मजबूत करने का आसान तरीका हैं। राजनीतिक दल इन मुद्दों को उठाकर भावनात्मक अपील करते हैं, जो मतदाताओं को प्रभावित करती है।
2. मीडिया की भूमिका: सनसनीखेज खबरें और बहसें इन मुद्दों को और हवा देती हैं। मंदिर-मस्जिद विवादों पर कोर्ट के फैसले और सर्वेक्षणों को मीडिया में बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है।
3. सामाजिक जड़ता: भारत की सामाजिक संरचना में जाति और धर्म गहरे पैठे हुए हैं। शिक्षा और जागरूकता के बावजूद, लोग अपनी पहचान को धर्म और जाति से जोड़ते हैं, जिसे राजनीतिक दल भुनाते हैं।
4. कानूनी ढांचा: 1991 का पूजा स्थल अधिनियम, जो धार्मिक स्थलों की स्थिति को 1947 के रूप में बनाए रखने की बात करता है, अब विवादों का केंद्र बन गया है। हिंदू पक्ष इसे संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन मानता है, जबकि मुस्लिम पक्ष इसे मस्जिदों की सुरक्षा के लिए जरूरी बताता है।
क्या है समाधान?
• शिक्षा और जागरूकता: शिक्षा प्रणाली में सुधार और सामाजिक जागरूकता से जाति और धर्म आधारित भेदभाव को कम किया जा सकता है। राजा भैया ने भी शिक्षा प्रणाली में सुधार की जरूरत पर जोर दिया था।
• समावेशी विकास: सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि विकास का लाभ सभी समुदायों तक पहुंचे। अयोध्या में मुस्लिम समुदाय की शिकायतें इस बात का सबूत हैं कि समावेशी विकास की कमी ध्रुवीकरण को बढ़ाती है।
• कानूनी स्पष्टता: मंदिर-मस्जिद विवादों को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को पूजा स्थल अधिनियम पर स्पष्ट फैसला देना होगा। यह विवादों की बाढ़ को रोक सकता है।
• राजनीतिक जवाबदेही: नेताओं को सांप्रदायिक मुद्दों के बजाय विकास, रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए।
निष्कर्ष
78 साल बाद भी मंदिर-मस्जिद और जात-पात का मुद्दा भारतीय राजनीति का केंद्र बना हुआ है क्योंकि यह भावनात्मक रूप से शक्तिशाली और वोट जुटाने में प्रभावी है। लेकिन अगर भारत को 2047 तक एक विकसित और समावेशी राष्ट्र बनना है, तो इन मुद्दों से ऊपर उठकर एकता और विकास पर ध्यान देना होगा। मोहन भागवत का बयान कि भारत को सद्भाव का मॉडल बनाना चाहिए, इस दिशा में एक सकारात्मक संदेश है। अब यह नेताओं और समाज पर निर्भर करता है कि वे इस संदेश को कितना अपनाते हैं।
आज भी नेताओ का प्रमुख एजेंडा, मंदिर-मस्जिद और जात-पात, आजादी के बाद भी भारतीय राजनीति का मुख्य आधार क्यों?, पढ़िए पूरी ख़बर

