हार्वर्ड प्रोफेसर ने किया दावा: कैसे बोरियत हो सकती है खुशी की कुंजी, पढ़िए पूरी खबर

Harvard University News: आज की तेज रफ्तार जिंदगी में जहां हर पल स्मार्टफोन और सोशल मीडिया से भरा होता है, वहां बोरियत को अक्सर नकारात्मक माना जाता है। लेकिन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर आर्थर सी. ब्रूक्स का कहना है कि बोरियत न सिर्फ जरूरी है, बल्कि यह खुशी और जीवन के अर्थ की खोज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ब्रूक्स के अनुसार, लगातार फोन का इस्तेमाल हमारे दिमाग को रिफ्लेक्शन से दूर कर रहा है, जिससे डिप्रेशन और एंग्जायटी जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं।

ब्रूक्स, जो ‘द हैप्पीनेस फाइल्स: इनसाइट्स ऑन वर्क एंड लाइफ’ किताब के लेखक हैं, ने हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू के एक वीडियो में इस विषय पर विस्तार से बात की। उन्होंने बताया कि बोरियत दिमाग के ‘डिफॉल्ट मोड नेटवर्क’ (DMN) को सक्रिय करती है। यह नेटवर्क तब काम करता है जब हम किसी खास काम में व्यस्त नहीं होते। “बोरियत हमें व्यस्त नहीं रखती, जिससे हमारा दिमाग डिफॉल्ट मोड में चला जाता है,” ब्रूक्स कहते हैं।

इस मोड में दिमाग घूम-फिरकर बड़े सवालों पर पहुंचता है, जैसे ‘मेरा जीवन क्या मतलब रखता है?’ या ‘क्या मैं सही रास्ते पर हूं?’ लेकिन ज्यादातर लोग इस असुविधा से बचने के लिए फोन निकाल लेते हैं।

प्रोफेसर ने 2014 में अपने सहकर्मी डैन गिल्बर्ट का जिक्र किया, जहां लोगों को 15 मिनट के लिए एक कमरे में अकेला छोड़ दिया गया। उनके सामने सिर्फ एक बटन था, जो दर्दनाक इलेक्ट्रिक शॉक दे सकता था। हैरानी की बात यह है कि ज्यादातर प्रतिभागियों ने खुद को शॉक देना पसंद किया, बजाय कुछ न सोचने के। ब्रूक्स कहते हैं, “हमने बोरियत को खत्म करने का तरीका ढूंढ लिया है – हमारे पॉकेट में स्क्रीन वाला वह डिवाइस। लेकिन इससे हमारा डिफॉल्ट मोड नेटवर्क बंद हो जाता है, जिससे जीवन में अर्थ की कमी हो जाती है।”

आज की दुनिया में डिप्रेशन और एंग्जायटी के बढ़ते मामलों को ब्रूक्स इसी से जोड़ते हैं। “अगर आप थोड़ी सी बोरियत में भी फोन निकालते हैं, तो अर्थ ढूंढना मुश्किल हो जाता है। यह डिप्रेशन और खालीपन की रेसिपी है,” उन्होंने चेतावनी दी। टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख में भी इसी विचार को दोहराया गया है, जहां ब्रूक्स कहते हैं कि बोरियत के बिना क्रिएटिविटी और पर्पज नहीं मिल सकता।

बोरियत को अपनाने के लिए ब्रूक्स कुछ सरल सुझाव देते हैं। “कल जिम जाते समय फोन घर पर छोड़ दें। क्या आप सहन कर पाएंगे?” वे चुनौती देते हैं। वर्कआउट के दौरान पॉडकास्ट न सुनें, सिर्फ अपने विचारों में रहें। वे कहते हैं कि 15 मिनट या इससे ज्यादा की बोरियत से यह एक स्किल बन जाती है, जिससे नौकरी, रिश्ते और आसपास की चीजें कम बोरिंग लगती हैं।

इससे जीवन के बड़े सवालों – पर्पज, कोहेरेंस और सिग्निफिकेंस – पर गहराई से सोचने का मौका मिलता है, जो खुशी की ओर ले जाता है।

ब्रूक्स खुद भी टेक्नोलॉजी की लत से जूझते हैं, लेकिन उन्होंने कुछ नियम बनाए हैं: शाम 7 बजे के बाद कोई डिवाइस नहीं, परिवार के साथ खाने के दौरान फोन नहीं, और नियमित सोशल मीडिया फास्ट। “पहले कुछ घंटे मुश्किल होते हैं, जैसे दिमाग में बच्चे चिल्ला रहे हों। लेकिन बाद में शांति मिलती है,” वे बताते हैं।

प्रोफेसर का संदेश साफ है: टेक्नोलॉजी को पूरी तरह छोड़ने की जरूरत नहीं, लेकिन अटेंशन और समय पर कंट्रोल जरूरी है। “फोन रख दो। आपको और मुझे जीवन में ज्यादा अर्थ चाहिए,” ब्रूक्स कहते हैं। यह विचार न सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के बीच चर्चा का विषय बन रहा है, बल्कि सोशल मीडिया पर भी लोग इसे शेयर कर रहे हैं, जैसे हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू की पोस्ट्स में।

अगर आप भी लगातार स्क्रीन से चिपके रहते हैं, तो ब्रूक्स की सलाह आजमाएं – शायद बोरियत में ही छिपी हो आपकी खुशी की चाबी।

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