गोरखा सैनिक बिष्णु श्रेष्ठ ट्रेन में 40 डकैतों से अकेले लड़े, एक लड़की की इज्जत बचाई

Gorkha soldier Bishnu Shrestha single-handedly fought 40 robbers on a train: भारतीय सेना के एक सेवानिवृत्त गोरखा सैनिक की बहादुरी की मिसाल आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई है। 2 सितंबर 2010 की उस काली रात को, जब मौर्य एक्सप्रेस ट्रेन पश्चिम बंगाल के चित्तरंजन के घने जंगलों से गुजर रही थी, तब करीब 40 हथियारबंद डकैतों ने यात्रियों पर हमला बोल दिया। लेकिन एक अकेला सैनिक, बिष्णु प्रसाद श्रेष्ठ, ने अपनी खुकुरी के दम पर उन सभी को धूल चटा दी। यह कहानी न सिर्फ साहस की है, बल्कि मानवता और गोरखा सैनिकों के उस मशहूर नारे “कायर बनने से बेहतर है मर जाना” की जीती-जागती मिसाल है।
बिष्णु श्रेष्ठ, जो 1975 में नेपाल के पर्वत जिले में पैदा हुए थे, भारतीय सेना की 8वीं गोरखा राइफल्स (7/8 GR) के नायक थे। उनके पिता गोपाल बाबू श्रेष्ठ भी वही रेजिमेंट में वियतनाम युद्ध के दौरान तैनात रहे थे। 2010 में 35 साल की उम्र में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद बिष्णु रांची से गोरखपुर जा रहे थे। मध्यरात्रि के आसपास ट्रेन रुक गई और डकैतों का झुंड चढ़ आया। वे बंदूकों, चाकुओं और तांगी से लैस थे। यात्रियों से लूटपाट शुरू हो गई—लगभग 4 लाख रुपये नकद, 40 सोने की चेनें, 200 मोबाइल फोन और 40 लैपटॉप समेत कीमती सामान छीन लिया।

लेकिन जब डकैतों ने एक 18 साल की लड़की को उसके माता-पिता के सामने नंगा करने और बलात्कार की कोशिश की, तो बिष्णु का खून खौल उठा। लड़की की चीखें सुनकर वे चुप नहीं बैठ सके। उन्होंने अपनी पारंपरिक खुकुरी निकाली और अकेले ही डकैतों पर टूट पड़े। रिपोर्ट्स के मुताबिक, उन्होंने तीन डकैतों को मार गिराया और आठ अन्य को गंभीर रूप से घायल कर दिया। लड़ाई इतनी भयंकर थी कि एक पल के लिए उनकी खुकुरी हाथ से छूट गई और डकैतों ने उसी से उनका बायां हाथ काट दिया। बिष्णु जमीन पर गिर पड़े, लेकिन उनकी हिम्मत ने यात्रियों में नई जान डाल दी। डकैत भाग खड़े हुए और पुलिस ने आठ घायल डकैतों को गिरफ्तार कर लिया।

लड़की के परिवार ने बिष्णु को भारी नकद इनाम देने की पेशकश की, लेकिन उन्होंने साफ इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, “दुश्मनों से लड़ना सैनिक का फर्ज है, और ट्रेन में गुंडों से मुकाबला इंसानियत का फर्ज।” इस घटना के बाद बिष्णु को रेलवे अस्पताल ले जाया गया, जहां उनका इलाज हुआ। उनकी बहादुरी की खबर फैलते ही भारतीय और नेपाली मीडिया ने इसे प्रमुखता से कवर किया।

बिष्णु की इस वीरता को सम्मानित करते हुए भारतीय सेना ने उन्हें सेना मेडल (Sena Medal) और उत्तर जीवन रक्षा पदक (Uttam Jeevan Raksha Padak) से नवाजा। यह घटना न केवल सार्वजनिक परिवहन की सुरक्षा पर बहस छेड़ने वाली बनी, बल्कि साहस की एक मिसाल भी। आज, 15 साल बाद भी बिष्णु श्रेष्ठ की कहानी युवाओं को प्रेरित करती है कि सच्चा सिपाही कभी हार नहीं मानता। गोरखा रेजिमेंट की परंपरा को जिंदा रखते हुए, बिष्णु ने साबित कर दिया कि एक सैनिक का जज्बा कभी रिटायर नहीं होता।

यह भी पढ़े: भाजपा नेता अशरफ आजाद ने आप सांसद संजय सिंह को भेजा 50 करोड़ का मानहानि नोटिस, ‘आतंकवादी’ टिप्पणी पर विवाद तेज

यहां से शेयर करें