धार्मिक परेड में भाग न लेने पर दोषी करार, कोर्ट ने दिया झटका बर्खास्त

Supreme Court/Regimental Parade News: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक ईसाई आर्मी अधिकारी लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन की सेवा से बर्खास्तगी के फैसले को बरकरार रखा। अधिकारी ने अपनी रेजिमेंट के मंदिर और गुरुद्वारे के अंदरूनी हिस्से में प्रवेश करने और पूजा-अर्चना में भाग लेने से इनकार कर दिया था, जिसे अदालत ने ‘सैन्य अनुशासन का घोर उल्लंघन’ करार दिया। मुख्य न्यायाधीश सुर्या कांत की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि यूनिफॉर्म में रहते हुए ‘व्यक्तिगत धार्मिक व्याख्या’ को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती, क्योंकि इससे सैनिकों की भावनाओं का अपमान होता है।

यह मामला भारतीय सेना की धर्मनिरपेक्ष परंपराओं और व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता के बीच टकराव को उजागर करता है। कमलेसन, जो 2017 में कमीशन हुए थे, उनकी रेजिमेंट में अधिकांश सैनिक हिंदू, सिख, राजपूत और जाट समुदाय से हैं।

रेजिमेंटल परेड में मंदिर या गुरुद्वारे में पूजा, हवन, आरती और फूल चढ़ाने जैसे रिवाजों में भाग लेना अनिवार्य माना जाता है, जो इकाई की एकता और मनोबल को मजबूत करने के लिए होता है। अधिकारी ने दावा किया कि उनकी मोनोथीस्टिक (एकेश्वरवादी) ईसाई आस्था के कारण यह उनके लिए पाप है, लेकिन अदालत ने इसे ‘निजी संवेदनशीलता’ बताते हुए खारिज कर दिया।

अदालत की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस जोयमलया बाघची भी शामिल थे, ने सुनवाई के दौरान कड़ी टिप्पणियां कीं। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “नेताओं को उदाहरण बनना होता है। आपने अपने सैनिकों का अपमान किया। जब आपके धर्म के पादरी ने भी कहा कि यह ठीक है, तो आपको इसे छोड़ देना चाहिए था। आप जिद्दी थे… यूनिफॉर्म में अपनी निजी धार्मिक व्याख्या थोप नहीं सकते।” उन्होंने इसे ‘सबसे घोर अनुशासनहीनता’ करार दिया और कहा कि सेना की धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान पहुंचा।

जस्टिस बाघची ने वकील गोपाल शंकरनारायणन से पूछा कि कौन सा ईसाई ग्रंथ मंदिर प्रवेश को प्रतिबंधित करता है। उन्होंने जोर दिया कि संविधान का अनुच्छेद 25 ‘आवश्यक धार्मिक विशेषताओं’ की रक्षा करता है, न कि हर भावना की। अदालत ने अधिकारी को ‘सेना के लिए अनुपयुक्त’ (डेफिनिटली ए मिसफिट) बताया और कहा कि इससे इकाई की एकजुटता प्रभावित हुई।

याचिकाकर्ता और सरकार के तर्क
कमलेसन के वकील ने दावा किया कि अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता सशस्त्र बलों में भी लागू होती है। उन्होंने कहा कि अधिकारी ने सैनिकों के साथ भोजन, व्यायाम और अन्य गतिविधियों में भाग लिया, लेकिन धार्मिक परेड में जबरन भागीदारी संविधान का उल्लंघन है। दिल्ली हाईकोर्ट के मई 2025 के फैसले में भी इसे ‘उच्चाधिकारी के वैध आदेश की अवज्ञा’ बताया गया था।

सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि सेना ने अधिकारी को कई बार समझाया, यहां तक कि ईसाई पादरियों से भी सलाह ली, लेकिन वे नहीं माने। इससे सैनिकों का मनोबल गिरा और युद्धकालीन एकता प्रभावित हुई। सेना का तर्क था कि रेजिमेंटल रिवाज सैनिकों को प्रेरणा देते हैं, और अधिकारी का इनकार ‘सैन्य ईथोस’ के विरुद्ध है।

सोशल मीडिया पर बहस
सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर दो धड़ों में बंटी राय है। कई यूजर्स ने इसे सैन्य अनुशासन की जीत बताया। पूर्व कर्नल पुष्कर प्रसाद ने कहा, “सेना में एकता सर्वोपरि है, धार्मिक जिद से बड़ा कोई अपराध नहीं।” वहीं, वकील संजय हेगड़े ने सवाल उठाया, “अगर कोई नास्तिक धार्मिक परेड से इनकार करे तो क्या होगा? क्या सेना सिर्फ एक तरह के विश्वासियों के लिए है?” कुछ ने इसे ‘हिंदू राष्ट्र’ की ओर बढ़ते कदम करार दिया, जैसे यूजर MIR ने लिखा, “भारत अब हिंदुस्तान बन गया, जहां ईसाई अधिकारी को मंदिर पूजा के लिए दंडित किया जा रहा है।”

पूर्व आईएएस अधिकारी केबीएस सिद्धू ने द प्रिंट में ओपिनियन पीस में लिखा कि यह फैसला भारतीय धर्मनिरपेक्षता की ‘बारीकियां’ को नजरअंदाज करता है, जहां विश्वास और संस्थागत अनुशासन का संतुलन जरूरी है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने इसे ‘अघोषित हिंदू राष्ट्र’ से जोड़ा।

यह फैसला सेना की परंपराओं को मजबूत करता नजर आता है, लेकिन धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर बहस छेड़ दी है। विशेषज्ञों का मानना है कि सेना को ऐसी स्थितियों से बचने के लिए पूर्व-प्रशिक्षण में स्पष्ट दिशानिर्देश देने चाहिए। मामला अब अंतिम रूप ले चुका है, लेकिन इसकी गूंज लंबे समय तक रहेगी।

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