सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संदर्भ पर विचार किया, जिसमें पूछा गया था कि क्या राज्यपालों को विधेयकों पर कार्रवाई के लिए समयबद्ध दिशानिर्देश दिए जा सकते हैं। पीठ ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास विवेकाधीन शक्तियां हैं—वे विधेयक को मंजूरी दे सकते हैं, कारण बताकर अस्वीकार कर सकते हैं या राष्ट्रपति को विचार के लिए भेज सकते हैं। हालांकि, कोर्ट ने जोर दिया कि राज्यपाल विधेयकों पर अनंत काल तक चुप नहीं बैठ सकते; यदि ऐसा होता है, तो सीमित न्यायिक समीक्षा लागू होगी।
अदालत राज्यपालों को “उचित समय सीमा” के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दे सकती है, लेकिन कोई कठोर समय-सीमा नहीं थोप सकती।
फैसले में अनुच्छेद 142 का जिक्र करते हुए कोर्ट ने कहा कि यह प्रावधान अदालत को संपूर्ण न्याय देने की शक्ति देता है, लेकिन राष्ट्रपति या राज्यपालों के कार्यों को हथियाना संभव नहीं।
‘डीम्ड सहमति’ का कॉन्सेप्ट संविधान में विदेशी है, क्योंकि यह कार्यपालिका के क्षेत्र में न्यायपालिका के अतिक्रमण को दर्शाता है। इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल द्वारा भेजे गए हर विधेयक पर राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने की जरूरत नहीं है।
यह फैसला हाल के वर्षों में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच बढ़ते टकराव के संदर्भ में आया है। केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसी विपक्षी शासित सरकारें लंबे समय से राज्यपालों पर विधेयकों को लंबित रखने का आरोप लगाती रही हैं। कोर्ट ने संघीय ढांचे की रक्षा पर जोर देते हुए कहा कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के विवेकपूर्ण क्षेत्र में हस्तक्षेप सीमित रखना चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला राज्यपालों की भूमिका को मजबूत करेगा, लेकिन ‘उचित समय’ की व्याख्या पर भविष्य में और विवाद हो सकते हैं।
राष्ट्रपति भवन और राज्य भवनों से अभी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन संवैधानिक विशेषज्ञ इसे “संतुलित दृष्टिकोण” बता रहे हैं जो न्यायिक सक्रियता और संवैधानिक सीमाओं के बीच संतुलन बनाता है।

