वीके सक्सेना के मानहानि मामले में मेधा पाटकर की सजा बरकरार, सार्वजनिक बयानों में सावधानी बरतनी जरूरी, पढ़िये पूरी ख़बर

Delhi High Court News: दिल्ली हाई कोर्ट ने मंगलवार को सामाजिक कार्यकर्ता और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर को दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना द्वारा दायर 23 साल पुराने मानहानि मामले में दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रक्खा गया है। जस्टिस शालिंदर कौर की पीठ ने निचली अदालत के फैसले को कानूनी रूप से उचित ठहराते हुए कहा कि इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। इस फैसले ने पाटकर को बड़ा झटका दिया है, जो इस मामले में अपनी सजा के खिलाफ अपील कर रही थीं।

मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद वर्ष 2000 में शुरू हुआ, जब वीके सक्सेना, जो उस समय गुजरात में नेशनल काउंसिल फॉर सिविल लिबर्टीज (NCCL) नामक एनजीओ के अध्यक्ष थे, ने मेधा पाटकर और उनके नर्मदा बचाओ आंदोलन (NBA) के खिलाफ एक विज्ञापन प्रकाशित किया। इस विज्ञापन का शीर्षक था, “सुश्री मेधा पाटकर और उनके नर्मदा बचाओ आंदोलन का असली चेहरा,” जिसमें NBA की गतिविधियों पर सवाल उठाए गए थे। जवाब में, पाटकर ने सक्सेना के खिलाफ एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की, जिसमें उन्हें “कायर” और “देशभक्त नहीं” कहा गया। साथ ही, उन पर हवाला लेनदेन और गुजरात के संसाधनों को विदेशी हितों के लिए “गिरवी” रखने जैसे गंभीर आरोप लगाए गए।

इन आरोपों को सक्सेना ने अपनी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाला माना और 2001 में अहमदाबाद की एक अदालत में पाटकर के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर किया। 2003 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर यह मामला दिल्ली की साकेत कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया।

निचली अदालत का फैसला
24 मई 2024 को दिल्ली की मजिस्ट्रेट अदालत ने पाटकर को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 500 (मानहानि) के तहत दोषी ठहराया। 1 जुलाई 2024 को उन्हें पांच महीने की साधारण कारावास की सजा सुनाई गई और सक्सेना को 10 लाख रुपये के मुआवजे का भुगतान करने का आदेश दिया गया। अदालत ने माना कि पाटकर के बयान न केवल मानहानिकारक थे, बल्कि सक्सेना की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के इरादे से दिए गए थे।

2 अप्रैल 2025 को साकेत कोर्ट की सत्र अदालत ने पाटकर की अपील को खारिज कर दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन सजा को संशोधित करते हुए उन्हें एक साल की परिवीक्षा पर रिहा कर दिया और मुआवजे की राशि को 10 लाख से घटाकर 1 लाख रुपये कर दिया।

हाई कोर्ट का फैसला
पाटकर ने सत्र अदालत के फैसले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन जस्टिस शालिंदर कौर ने उनकी अपील को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत और सत्र अदालत के फैसलों में कोई अवैधता, प्रक्रियागत त्रुटि या अनियमितता नहीं पाई गई। कोर्ट ने यह भी माना कि पाटकर अपने बयानों की सत्यता साबित करने या यह दिखाने में विफल रहीं कि उनके खिलाफ कोई अन्याय हुआ।

हालांकि, हाई कोर्ट ने पाटकर को कुछ राहत देते हुए परिवीक्षा की शर्तों में संशोधन किया। अब उन्हें हर तीन महीने में निचली अदालत में व्यक्तिगत रूप से पेश होने की बजाय वर्चुअली या अपने वकील के माध्यम से पेश होने की अनुमति दी गई है।

पाटकर की प्रतिक्रिया
पाटकर ने इस मामले में हमेशा अपनी बेगुनाही का दावा किया है। उन्होंने कहा कि उनके बयान NBA के कार्यों की रक्षा और जनहित में थे। सजा के बाद उन्होंने कहा, “सत्य कभी पराजित नहीं हो सकता। हमने किसी को बदनाम करने की कोशिश नहीं की, हम केवल अपना काम करते हैं।” उन्होंने इस फैसले को और ऊपरी अदालत में चुनौती देने की बात कही है।

सक्सेना का पक्ष
सक्सेना के वकील गजिंदर कुमार ने अदालत में दलील दी कि पाटकर के बयान उनकी प्रतिष्ठा को जानबूझकर नुकसान पहुंचाने के लिए थे। उन्होंने यह भी कहा कि मुआवजे की राशि सक्सेना को नहीं चाहिए और इसे दिल्ली विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) को दिया जाए।

निष्कर्ष
यह मामला न केवल दो दशकों से अधिक समय तक चला, बल्कि सामाजिक कार्यकर्ताओं और सार्वजनिक व्यक्तियों के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानहानि के कानूनी दायरे को लेकर भी चर्चा का विषय रहा। दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर इस बात को रेखांकित किया कि सार्वजनिक बयानों में सावधानी बरतनी जरूरी है। मेधा पाटकर के लिए यह एक कानूनी झटका है, लेकिन उनके समर्थक इसे सामाजिक आंदोलनों को दबाने की कोशिश के रूप में भी देख रहे हैं।

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