बिहारी मजदूर दिल्ली-मुंबई की ईंटें तो तोड़ रहे

Bihar Assembly Election News: बिहार विधानसभा चुनावों के बीच सत्ताधारी एनडीए गठबंधन की जोड़ी भाजपा-जदयू ने एथनॉल फैक्टरियों को विकास का प्रतीक बना लिया है। चुनावी सभाओं में नीतीश कुमार और भाजपा नेताओं के भाषणों का केंद्र बिंदु यही है—एथनॉल उत्पादन से औद्योगिक क्रांति, रोजगार सृजन और पलायन रोकने का वादा। लेकिन चमकदार विज्ञापनों और नारों के पीछे एथनॉल क्षेत्र में छिपे संकट उजागर हो रहे हैं। मंदी, उत्पादन में कमी और हजारों नौकरियों पर संकट ने इस ‘सूर्योदय क्षेत्र’ को संकटग्रस्त बना दिया है। क्या ये फैक्टरियां वाकई बिहार की किस्मत बदल रही हैं, या सिर्फ चुनावी तासीर हैं?

चुनावी मंच पर एथनॉल का जलवा
बिहार अब देश का सबसे बड़ा एथनॉल उत्पादक राज्य बन चुका है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हालिया रैलियों में दावा किया कि ‘एथनॉल उत्पादन में बिहार नंबर वन है, फैक्टरियां आ रही हैं और अगले पांच सालों में पलायन का रुझान उलट जाएगा।’

एनडीए का ‘संकल्प पत्र’ भी एक करोड़ नौकरियों का वादा करता है, जिसमें 10 नए औद्योगिक पार्क और एथनॉल जैसे क्षेत्रों पर जोर है। भाजपा के विज्ञापनों में ‘डबल इंजन सरकार’ को श्रेय देते हुए कहा गया है कि बिहार ने ‘रफ्तार पकड़ ली है’।

बक्सर के नवानगर में भारत प्लस एथनॉल प्राइवेट लिमिटेड जैसी फैक्टरियां 700 से ज्यादा मजदूरों को रोजगार दे रही हैं, जिनमें 80 प्रतिशत स्थानीय हैं।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने 2021 में एथनॉल उत्पादन प्रोत्साहन नीति लाई, जिसके तहत 5 करोड़ रुपये की सब्सिडी और सॉफ्ट लोन की सुविधा दी गई। नतीजा? 9 प्रोजेक्ट 1500 किलोलीटर प्रति दिन की क्षमता के साथ चालू हो चुके हैं, और 47 प्रस्ताव मंजूर हैं। भाजपा नेता दिलीप जायसवाल इसे ‘मोदी की गारंटी’ बताते हैं। लेकिन ये आंकड़े बताते हैं कि रोजगार सृजन अभी भी सीमित है—एथनॉल प्लांट श्रम-गहन नहीं हैं, और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्रों की तुलना में कम मजदूरों पर निर्भर हैं।

पलायन का दर्द
बिहार में बेरोजगारी और पलायन का मुद्दा चुनावी हथियार बन चुका है। 2022-23 के जाति सर्वे के मुताबिक, 2.65 करोड़ बिहारी राज्य के बाहर रहते हैं। पीएलएफएस 2023-24 डेटा से युवा बेरोजगारी दर 18.2 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 10.2 से दोगुनी है। हर साल 30 लाख मजदूर गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब भागते हैं, जहां वे निर्माण, कृषि और फैक्टरियों में कम वेतन पर काम करते हैं।

राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव ने कहा, ‘20 साल की नीतीश-मोदी सरकार ने बिहार को बेरोजगारी, पलायन और गरीबी का केंद्र बना दिया।’ कांग्रेस की प्रियंका गांधी ने भी रैलियों में नौकरियां और विकास पर जोर दिया। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर भी आवाजें उठ रही हैं—एक यूजर ने लिखा, ‘बिहार से 1 करोड़ लोग बाहर काम कर रहे हैं, 50 प्रतिशत परिवार प्रभावित।’ दूसरी ओर, पलायन रोकने के लिए एनडीए ने ‘बिहार दिवस’ मनाया, लेकिन आंकड़े झूठ नहीं बोलते।

छिपे संकट
विकास के दावों के उलट, एथनॉल क्षेत्र संकट में डूबा है। आबंटन में बदलाव से उत्पादन घटा, और फैक्टरी मालिक जैसे अजय कुमार सिंह मंत्रियों से मिलने की गुहार लगा रहे हैं। ग्रेन एथनॉल मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ने ऑयल मार्केटिंग कंपनियों (ओएमसी) को पत्र लिखा कि बदलाव से उद्योग संकट में हैं। बिहार में 17 एथनॉल प्लांट बंद होने की कगार पर हैं, जिससे 22 हजार नौकरियां खतरे में हैं।

चुनाव ने संकट को और गहरा दिया—मिलिटियां रुकीं, और सहकारी चीनी मिलों को प्राथमिकता से निजी प्लांट प्रभावित हुए। एक्स पर एक पोस्ट में कहा गया, ‘एथनॉल घोटाला: 11 साल सत्ता का मजा, लेकिन जनता को जुमले।’ बेरोजगारी दर 10.2 प्रतिशत होने से ग्रामीण क्षेत्रों में छिपी बेरोजगारी बढ़ रही है, जहां 88 प्रतिशत आबादी रहती है।

क्या रास्ता है?
एथनॉल क्षेत्र बिहार की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकता है, लेकिन इसके लिए नीतिगत स्थिरता, कौशल विकास और निजी निवेश जरूरी है। एनएसएसओ सर्वे बताता है कि 2024 में 45 लाख ने पलायन किया। अगर फैक्टरियां स्थानीय मजदूरों को वाकई रोजगार दें, तो पलायन रुक सकता है। लेकिन फिलहाल, ये संकट विकास के दावों पर सवाल खड़े कर रहे हैं। बिहारी मजदूर दिल्ली-मुंबई की ईंटें तो तोड़ रहे हैं, लेकिन अपना घर कब बनेगा? चुनावी वादों से आगे सोचने का वक्त आ गया है।

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