बिहार एक मूलतः हिंदी भाषी राज्य फिर भी क्यो बीजेपी आज भी स्वतंत्र जमीन की तलाश?

Bihar Assembly News: हिंदी हृदयभूमि में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रभुत्व निर्विवादित है, जहां उत्तर प्रदेश जैसे राज्य योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में 2017 से भाजपा सरकार चला रहे हैं, और नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने हुए हैं।

लेकिन बिहार इस वर्चस्व से अलग-थलग खड़ा है, जहां भाजपा अभी भी एक स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही है और नीतीश कुमार जैसे सहयोगियों पर निर्भर है। दशकों पहले इसके संस्थापकों ने राजनीतिक अलगाव से लड़ाई लड़ी थी, लेकिन आज भी पार्टी को बिहार में पैन-स्टेट अपील हासिल नहीं हो पाई है।

राजनीतिक विश्लेषको का कहना हैं कि, “बिहार में कम्युनिस्ट, समाजवादी और जनसंघ/भाजपा का उदय कांग्रेस के वर्चस्व के दौरान एक साथ हुआ। फिर भी भाजपा पूरे बिहार में फैल नहीं पाई। नीतीश कुमार पर उसकी 20 साल से अधिक की निर्भरता सब कुछ बयां करती है। शाहाबाद (भोजपुर, रोहतास, कैमूर और बक्सर) और मगध (औरंगाबाद, गया, जहानाबाद, अरवल) जैसे क्षेत्र समाजवादी और वामपंथी आंदोलनों के लिए जाने जाते हैं।

2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को यहां 21 में से सिर्फ 2 सीटें मिलीं, और पिछले साल के लोकसभा चुनाव में कोई नहीं।

नीतीश कोसी बेल्ट में प्रभावशाली हैं, जबकि लालू प्रसाद यादव का मुस्लिम-यादव आधार मजबूत है। ऐसे में भाजपा को सत्ता साझा करने के लिए सहयोगियों की जरूरत पड़ती है।”

बिहार की राजनीति की जड़ें 1950-60 के दशक में हैं, जब विभाजन के बाद हिंदू शरणार्थियों के बसने से जनसंघ का प्रभाव बढ़ा, जबकि कारखानों और मजदूरों वाले इलाकों में कम्युनिस्ट मजबूत हुए। 1990 तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा, सिर्फ 1967-72 और 1977-80 के छोटे अंतरालों को छोड़कर।

जनसंघ (भाजपा का पूर्व अवतार) को 1952 और 1957 के चुनावों में कोई सीट नहीं मिली। 1962 में पहली सफलता मिली, जब सिवान, मुंगेर और नवादा से तीन सीटें जीतीं।

1967 में राममनोहर लोहिया के एंटी-कांग्रेस अभियान से कांग्रेस नौ राज्यों में हारी, जिसमें बिहार भी शामिल था। लोहिया ने विपक्ष को एकजुट किया, और जनसंघ को जगह मिली। संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) सरकार बनी, जिसमें महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री और कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने। जनसंघ के 26 विधायक थे, और तीन मंत्रियों को जगह मिली। सीपीआई भी गठबंधन में थी। 1967-72 के अस्थिर दौर में सात मुख्यमंत्री आए, लेकिन जनसंघ ने अपनी उपस्थिति बनाए रखी। 1969 में 34 और 1972 में 25 सीटें जीतीं।

जेपी आंदोलन के बाद जयप्रकाश नारायण ने जनसंघ, चरण सिंह की भारतीय लोक दल और समाजवादियों को मिलाकर जनता पार्टी बनाई। 1977 में 325 में से 214 सीटें जीतीं, और कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। पूर्व जनसंघ नेता जैसे कैलाशपति मिश्रा और ठाकुर प्रसाद मंत्री बने। लेकिन 1980 में भाजपा के रूप में उभरने के बाद तीन चुनावों (1980: 21, 1985: 16, 1990: 30 सीटें) में पार्टी कमजोर रही, क्योंकि कांग्रेस और फिर लालू प्रसाद के समाजवादी उभार ने उसे पीछे धकेल दिया।

नीतीश कुमार से गठबंधन के बाद ही भाजपा को आरजेडी को चुनौती देने का मौका मिला। 2000 में एनडीए के पास बहुमत नहीं था, लेकिन सरकार बनाने का न्योता मिला। नीतीश ने सुशील कुमार मोदी और पशुपति कुमार पारस के साथ शपथ ली, लेकिन सात दिनों में सरकार गिर गई। भाजपा के एक वर्ग का मानना है कि नेताओं की कमी पार्टी को बांधे रखती है। पहले कैलाशपति मिश्रा, ठाकुर प्रसाद, तराकांत झा, गोविंदाचार्य और अश्विनी कुमार जैसे संस्थापक थे। मिश्रा कटिहार में रेलवे स्टेशन पर सोते थे, और गोविंदाचार्य साइकिल से गांव-गांव घूमकर आरएसएस की छवि सुधारने में लगे थे।

सुशील कुमार मोदी के निधन के बाद पार्टी में ‘मीडियोकर्स’ का बोलबाला है। 2014 के मोदी लहर के एक साल बाद 2015 विधानसभा में सिर्फ 53 सीटें मिलीं। 2020 में जेडीयू की 43 के मुकाबले 74 सीटें जीतीं, लेकिन सीएम पोस्ट नीतीश को सौंपी। अब अमित शाह ने सीएम फेस का नाम नहीं लिया, लेकिन अगर जेडीयू 55-60 सीटें जीतती है, तो नीतीश फिर सीएम बनेंगे।

द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में मंडल (जाति-आधारित सामाजिक न्याय) बनाम कमंडल (हिंदुत्व) की लड़ाई में सेकुलर और सामाजिक न्याय की भावना इतनी गहरी है कि भाजपा हिंदुत्व का झंडा गाड़ने में संघर्ष कर रही है। इंडिया टुडे की रिपोर्ट बताती है कि नीतीश भाजपा के लिए फोर्स मल्टीप्लायर हैं, न कि फॉलबैक ऑप्शन, क्योंकि राष्ट्रीय नेतृत्व नीतीश जैसे करिश्माई चेहरे की तलाश में है।

बिहार की राजनीति औद्योगिक हृदयभूमि से राजनीतिक चौराहे तक पहुंची है, जहां जाति, भ्रष्टाचार और शासन परिवर्तन प्रमुख हैं। भाजपा के लिए बिहार अभी भी एक अजेय सीमा है, जहां सहयोगी आवश्यक हैं।

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