Bihar News: बिहार के गया जिले के गेहलौर गाँव में एक ऐसा पहाड़ टूटा था, जिसने पूरे देश को साहस की मिसाल दी थी। दशरथ मांझी, जिन्हें ‘माउंटेन मैन’ के नाम से जाना जाता है, ने 22 साल की मेहनत से हथौड़े और छेनी से पहाड़ काटकर एक रास्ता बनाया था। यह रास्ता न सिर्फ उनके गाँव को नजदीकी अस्पताल से जोड़ता था, बल्कि असमानता के खिलाफ एक संघर्ष की प्रतीक भी बन गया। लेकिन दशकों बाद भी, मांझी समुदाय के लोग—जिनमें से दशरथ जी खुद आते थे—उसी गाँव में पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए जूझ रहे हैं। हाल ही में एक वीडियो ने इस दर्दनाक हकीकत को फिर से उजागर किया है, जहाँ गाँव का दौरा करने पर पाया गया कि मांझी जी के लोगों की जिंदगी में कोई खास बदलाव नहीं आया।
मांझी समुदाय, जो अनुसूचित जाति का हिस्सा है, बिहार के ग्रामीण इलाकों में मुख्य रूप से मजदूरी और खेतों के काम पर निर्भर है। गेहलौर जैसे गाँवों में अधिकांश पुरुष काम की तलाश में शहरों या दूसरे राज्यों की ओर पलायन कर जाते हैं, पीछे रह जाते हैं महिलाएँ, बच्चे और बुजुर्ग। एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसे परिवारों की औसत मासिक आय मात्र 5-6 हजार रुपये है, जिसमें से बड़ा हिस्सा भोजन और दैनिक खर्चों पर खर्च हो जाता है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या है साफ पानी की कमी। गाँव में नल का पानी पहुँचने की कोई व्यवस्था नहीं है; महिलाओं को दूर-दूर तक कुओं या नदियों पर निर्भर रहना पड़ता है। “पानी भरने में ही घंटों लग जाते हैं, फिर घर लाना तो और मुश्किल,” एक स्थानीय महिला ने बताया।
शिक्षा का हाल और भी खराब है। गाँव के प्राइमरी स्कूल में शिक्षकों की कमी और बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। बच्चे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाते हैं, उसके बाद हाई स्कूल के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता है। लड़कियों की स्थिति तो और दयनीय है—सुरक्षा की चिंता और जातिगत भेदभाव के डर से वे जल्दी ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। एक सर्वे के अनुसार, मांझी समुदाय में साक्षरता दर राज्य औसत से काफी कम है, जो 60 प्रतिशत के आसपास है। स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो स्थिति चिंताजनक है। नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र तक पहुँचने के लिए वही पुराना रास्ता है, जो मांझी जी ने बनाया था, लेकिन वहाँ डॉक्टरों और दवाइयों की कमी आम अब आम बात हो गई है। कुपोषण और एनीमिया जैसी बीमारियाँ यहाँ के बच्चों और महिलाओं को घेर रही हैं।
यह असमानता बिहार के व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य का हिस्सा है। राज्य सरकार की योजनाएँ जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना और हर घर जल जैसी स्कीम्स यहाँ पहुँच तो रही हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार और अमल की कमी के कारण उनका असर सीमित है। उदाहरण के तौर पर, उज्ज्वला गैस सिलेंडर मिलने के बावजूद कई परिवार ईंधन भरवाने का खर्च न उठा पाने के कारण चूल्हों पर ही खाना बनाते रहते हैं। एक वीडियो रिपोर्ट में दिखाया गया कि गेहलौर गाँव में मांझी जी का घर आज भी कच्चा है, और उनके वंशज मजदूरी पर निर्भर हैं। “हमारा साहस तो वही है जो दादाजी का था, लेकिन सरकार की उपेक्षा ने हमें यहीं छोड़ दिया,” एक ग्रामीण ने कहा।
सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मांझी समुदाय को विशेष पैकेज की जरूरत है। बिहार सरकार ने महादलित विकास विभाग के तहत कुछ प्रयास किए हैं, लेकिन गेहलौर जैसे दूरदराज गाँवों तक पहुँच नहीं पा रही है। विशेषज्ञों की राय है कि स्थानीय स्तर पर कौशल प्रशिक्षण, सिंचाई सुविधाएँ और स्कूलों का विस्तार से ही बदलाव आ सकता है। दशरथ मांझी की जयंती पर हर साल श्रद्धांजलि दी जाती है, लेकिन उनके गाँव की हकीकत हमें याद दिलाती है कि असली श्रद्धांजलि तो उनके लोगों को सम्मानजनक जीवन देना होगा।
यह खबर न सिर्फ मांझी समुदाय की कहानी है, बल्कि पूरे बिहार के उन लाखों लोगों की जो विकास की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। क्या सरकार इस दर्द को सुन पाएगी? समय ही बताएगा।

