Visakhapatnam/Andhra Pradesh News: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कुछ ऐसे नायक हैं जिन्होंने न केवल अपने साहस और बलिदान से देशवासियों को प्रेरित किया, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को भी हिलाकर रख दिया था। इनमें से एक थे अल्लूरी सीताराम राजू, जिन्हें स्थानीय लोग प्यार से “मन्यम वीरुडु” यानी “जंगल का नायक” कहते हैं। उनकी वीरता और क्रांतिकारी गतिविधियों की गाथा आज भी आंध्र प्रदेश के जनजातीय समुदायों के बीच जीवित है।
प्रारंभिक जीवन और प्रेरणा
4 जुलाई 1897 को आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम जिले के पंडरंगी गांव में एक तेलुगु क्षत्रिय परिवार में जन्मे अल्लूरी सीताराम राजू का बचपन ब्रिटिश शासन के अत्याचारों को देखते हुए बीता। उनके पिता वेंकट राम राजू एक फोटोग्राफर थे, और मां सूर्यनारायणम्मा एक गृहिणी। कम उम्र में ही औपचारिक शिक्षा छोड़कर उन्होंने अध्यात्म और संन्यास की राह अपनाई। 18 वर्ष की आयु में वे साधु बन गए और तीर्थयात्राओं पर निकल पड़े। इस दौरान, 1920 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने आदिवासियों को संगठित करना शुरू किया। उन्होंने लोगों को शराब छोड़ने और स्थानीय विवादों को पंचायतों के माध्यम से सुलझाने की सलाह दी।
रम्पा विद्रोह, ब्रिटिश शासन के खिलाफ बगावत
1922 में अल्लूरी सीताराम राजू ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत की, जिसे इतिहास में “रम्पा विद्रोह” (1922-1924) के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह का मुख्य कारण था 1882 का मद्रास वन अधिनियम, जिसने आदिवासियों की पारंपरिक पोडु (स्थानांतरण) खेती और जंगलों में मुक्त आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस अधिनियम ने आदिवासियों की आजीविका और सांस्कृतिक पहचान को गहरी चोट पहुंचाई।
राजू ने आदिवासियों और अन्य समर्थकों को एकजुट कर गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई। गोदावरी नदी के पास नल्लईमल्लई पहाड़ियां उनकी सेना का प्रशिक्षण केंद्र और आश्रय स्थल बन गईं। तीर-धनुष, बंदूक और अपनी चतुर रणनीतियों के साथ उन्होंने कई पुलिस स्टेशनों पर हमले किए और ब्रिटिश अधिकारियों को निशाना बनाया। ओजेरी गांव के पास उन्होंने अपने 80 अनुयायियों के साथ दो ब्रिटिश अधिकारियों, स्कॉट और आर्थर, को मार गिराया और उनके आधुनिक हथियार हासिल किए। इस जीत ने उनके विद्रोह को और मजबूती दी।
ब्रिटिशों की नींद उड़ाने वाला “रम्पा फितूरी”
अल्लूरी की चतुराई और गुरिल्ला युद्ध की रणनीति ने ब्रिटिश अधिकारियों को हैरान कर दिया। वे पहाड़ियों में छिप जाते और अचानक हमला बोलकर गायब हो जाते। ब्रिटिश अधिकारी उन्हें “रम्पा फितूरी” कहकर बुलाने लगे। आंध्र की स्थानीय पुलिस उनके सामने असफल साबित हुई, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने केरल की मलाबार पुलिस को बुलाया, जो पहाड़ी क्षेत्रों में छापेमारी में माहिर थी।
बलिदान और विरासत
7 मई 1924 को, पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार, अल्लूरी सीताराम राजू को पकड़ लिया गया। उन्हें एक पेड़ से बांधकर गोली मार दी गई। उस समय उनकी सेना की संख्या कम थी, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उनकी शहादत ने स्वतंत्रता संग्राम में एक नई चिंगारी जलाई। उनके बलिदान के बाद भी रम्पा क्षेत्र में विद्रोह जारी रहा, जिससे ब्रिटिश शासन की नींद हराम रही।
1986 में भारतीय डाक विभाग ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया। 2022 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी 125वीं जयंती पर भीमावरम में उनकी 30 फुट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया और उन्हें “एक भारत, श्रेष्ठ भारत” की भावना का प्रतीक बताया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी 2023 में उनकी जयंती समारोह में हिस्सा लिया और इतिहासकारों से उनके योगदान को युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का आग्रह किया।
आज भी प्रेरणा का स्रोत
अल्लूरी सीताराम राजू की वीरता और बलिदान की कहानी आज भी आंध्र प्रदेश के आदिवासी समुदायों में गर्व के साथ सुनाई जाती है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था कि भारत के युवाओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। जंगल के इस नायक ने न केवल ब्रिटिश शासन को खुली चुनौती दी, बल्कि सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता के लिए एक अमर विरासत छोड़ी।

