‘वंदे मातरम’ पर छिड़ी तीखी बहस: आनंदमठ की विवादास्पद विरासत और ‘हिंदू धर्म खतरे में’ का नया संदर्भ

‘वंदे मातरम’ पर छिड़ी तीखी बहस: भारतीय संसद के शीतकालीन सत्र में ‘वंदे मातरम’ गीत की 150वीं वर्षगांठ पर हुई चर्चा ने पुराने विवादों को फिर से जीवित कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि 1937 में पार्टी ने गीत के कुछ पदों को हटाया था, जबकि विपक्ष ने भाजपा पर बंगाल के सांस्कृतिक प्रतीकों का अपमान करने का जवाब दिया। इस बहस में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) का बार-बार जिक्र हुआ, जिसमें यह गीत पहली बार प्रकाशित हुआ था।

‘आनंदमठ’ संन्यासी विद्रोह (18वीं सदी) की पृष्ठभूमि पर आधारित है और इसे भारतीय राष्ट्रवाद का प्रारंभिक प्रतीक माना जाता है। उपन्यास में ‘वंदे मातरम’ को मातृभूमि की स्तुति के रूप में प्रस्तुत किया गया, जो 1905 के बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन का प्रमुख नारा बना था। हालांकि, उपन्यास की कुछ पंक्तियों में अंग्रेजी शासन को ‘सनातन धर्म’ के लिए लाभकारी बताया गया है, क्योंकि यह मुस्लिम शासकों से बेहतर माना गया। एक चरित्र कहता है कि अंग्रेज हिंदुओं को संगठित कर धर्म की रक्षा करेंगे। इस वजह से कुछ इतिहासकार इसे प्रो-ब्रिटिश और एंटी-मुस्लिम करार देते हैं।

सोशल मीडिया और कुछ चर्चाओं में दावा किया जाता है कि अंग्रेजों ने ‘आनंदमठ’ के आधार पर 1905 में बंगाल का विभाजन किया। इतिहासकार इसे खारिज करते हैं। लॉर्ड कर्जन द्वारा किया गया यह विभाजन प्रशासनिक कारणों और ‘बांटो और राज करो’ नीति का हिस्सा था। उल्टा, विभाजन के विरोध में ‘वंदे मातरम’ और ‘आनंदमठ’ ने राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारने में बड़ी भूमिका निभाई। ब्रिटिश सरकार ने उपन्यास पर प्रतिबंध भी लगाया था, क्योंकि यह विद्रोही माना गया।

वर्तमान में ‘हिंदू धर्म खतरे में’ का नरेटिव हिंदुत्व संगठनों और राजनीतिक बहसों में प्रचलित है। हाल की खबरों में कर्नाटक के प्रस्तावित ‘हेट स्पीच बिल 2025’ पर हिंदू संगठनों ने विरोध जताया है, दावा करते हुए कि यह हिंदुओं की अभिव्यक्ति को दबाएगा। कुछ विश्लेषक ‘आनंदमठ’ को आधुनिक हिंदू राष्ट्रवाद की प्रेरणा मानते हैं, जहां ‘खतरे’ की भावना को जोड़ा जाता है। हालांकि, विपक्ष इसे चुनावी ध्रुवीकरण का हिस्सा बताता है।

यह बहस दिखाती है कि ‘वंदे मातरम’ और ‘आनंदमठ’ आज भी भारतीय राजनीति में प्रतीक बने हुए हैं – एक तरफ राष्ट्रवाद की प्रेरणा, दूसरी तरफ समावेशिता और इतिहास की व्याख्या का विवाद। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मुद्दे इतिहास को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत करने से जटिल हो जाते हैं।

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