यह पत्र 5 दिसंबर को पूर्व जजों, वकीलों और विद्वानों के एक अन्य पत्र के चार दिन बाद आया है, जिसमें सीजेआई की टिप्पणियों को ‘अमानवीय’ और ‘खतरनाक मिसाल’ बताया गया था। विवाद की जड़ 2 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में एक हेबियस कॉर्पस याचिका की सुनवाई है, जिसमें रोहिंग्या प्रवासियों के कथित हिरासत में गायब होने का मामला उठाया गया था।
पृष्ठभूमि: सीजेआई की टिप्पणियां क्या थीं?
सुप्रीम कोर्ट की बेंच—जिसकी अध्यक्षता सीजेआई सूर्यकांत और जस्टिस ज्योमल्या बागची कर रहे थे—ने सुनवाई के दौरान रोहिंग्याओं के कानूनी दर्जे पर सवाल उठाए। सीजेआई ने कहा, “शरणार्थी घोषित करने का सरकारी आदेश दिखाएं। अवैध तरीके से सीमा पार करने वाले घुसपैठिए को लाल कालीन बिछाकर स्वागत करेंगे क्या? हमारे नागरिकों को भोजन, आश्रय और शिक्षा का अधिकार है, तो घुसपैठियों को क्यों?” हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि कोई भी व्यक्ति—नागरिक हो या विदेशी—भारतीय मिट्टी पर यातना, गायब करने या अमानवीय व्यवहार का शिकार नहीं हो सकता, और हर व्यक्ति की गरिमा का सम्मान होना चाहिए।
रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार में उत्पीड़न का शिकार होकर भारत आए हैं, जहां उन्हें अक्सर अवैध प्रवासी माना जाता है। भारत में करीब 40,000 रोहिंग्या रहते हैं, लेकिन देश के पास कोई वैधानिक शरणार्थी ढांचा नहीं है। पूर्व जजों के पत्र में चिंता जताई गई कि कुछ रोहिंग्याओं ने आधार कार्ड और राशन कार्ड जैसे दस्तावेज हासिल कर लिए हैं, जो देश की पहचान और कल्याण प्रणाली की अखंडता को खतरे में डालता है। उन्होंने अदालत-निगरानी में विशेष जांच दल (एसआईटी) गठित करने का सुझाव दिया।
आलोचना का दौर: पूर्व जजों और वकीलों का पत्र
5 दिसंबर को जारी एक अन्य पत्र में 30 से अधिक पूर्व जजों, वरिष्ठ वकीलों (जैसे प्रशांत भूषण) और अकादमिक्स ने सीजेआई की टिप्पणियों को ‘नैतिकता को कमजोर करने वाला’ बताया। उन्होंने कहा कि घरेलू गरीबी का हवाला देकर शरणार्थियों के संवैधानिक अधिकारों को नकारना खतरनाक मिसाल कायम करता है। पत्र में जोर दिया गया कि रोहिंग्याओं को म्यांमार में नरसंहार का सामना करना पड़ा है, और भारत को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानदंडों का पालन करना चाहिए।
इस पत्र ने सोशल मीडिया पर बहस छेड़ दी। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर कई यूजर्स ने सीजेआई का समर्थन किया, इसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बताते हुए, जबकि अन्य ने इसे ‘दया की कमी’ करार दिया। उदाहरण के लिए, एक पोस्ट में कहा गया, “सीजेआई ने सही कहा—घुसपैठियों के लिए लाल कालीन नहीं बिछा सकते।” वहीं, दूसरी ओर चिंता जताई गई कि यह टिप्पणियां न्यायपालिका की नैतिक साख को प्रभावित करती हैं।
44 पूर्व जजों का जवाब: ‘न्यायपालिका पर हमला’
नए पत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं में पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज अनिल दवे और हेमंत गुप्ता, राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अनिल देव सिंह तथा जम्मू-कश्मीर और दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश बी.सी. पटेल शामिल हैं। उन्होंने कहा कि न्यायिक कार्यवाही पर निष्पक्ष आलोचना होनी चाहिए, लेकिन यह अभियान सुप्रीम कोर्ट को बदनाम करने का प्रयास है। “यह गंभीर विकृति है कि अदालत की मानव गरिमा की पुष्टि को दबाकर ‘अमानवीकरण’ का आरोप लगाया जा रहा है,” पत्र में कहा गया।
पूर्व जजों ने चेतावनी दी कि अगर राष्ट्रीयता, प्रवासन या सीमा सुरक्षा पर हर जांचपूर्ण सवाल को नफरत या पूर्वाग्रह का ठहराया जाएगा, तो न्यायिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई पर पूर्ण विश्वास जताते हुए कहा, “भारत का संवैधानिक ढांचा मानवता और सतर्कता दोनों की मांग करता है।”
आगे क्या? संतुलन की चुनौती
यह विवाद न्यायपालिका की भूमिका, शरणार्थी नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन को उजागर करता है। भारत ने कभी शरणार्थी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और गरिमा का अधिकार सभी को है। विशेषज्ञों का मानना है कि रोहिंग्या मुद्दे पर संसदीय कानून की जरूरत है। फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर आगे सुनवाई टाल दी है।
यह घटना न्यायिक टिप्पणियों पर बहस को नई ऊंचाई दे रही है, जहां एक ओर मानवाधिकार की दुहाई दी जा रही है, तो दूसरी ओर सीमाओं की रक्षा। क्या यह ‘प्रेरित अभियान’ है या वैध आलोचना—यह समय ही बताएगा।

