फिल्म में दुर्लभ आर्काइव फुटेज, जीवित बचे लोगों के मार्मिक संस्मरण और विशेषज्ञों के विश्लेषण के ज़रिए पूरे संघर्ष का चित्रण किया गया है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे 25 मार्च 1971 की रात को शुरू हुई ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ के तहत पाकिस्तानी सेना ने ढाका विश्वविद्यालय, पुलिस लाइन्स और हिंदू बस्तियों पर अंधाधुंध हमले किए। इसके जवाब में मुक्ति बहिनी (मुक्ति वाहिनी) का सशस्त्र प्रतिरोध उभरा और अंततः 3 दिसंबर 1971 को भारत के युद्ध में कूदने के बाद सिर्फ़ 13 दिनों में पाकिस्तानी सेना के 93,000 सैनिकों ने 16 दिसंबर 1971 को ढाका में आत्मसमर्पण कर दिया – द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किसी सेना का सबसे बड़ा समर्पण था।
डॉक्यूमेंट्री में प्रमुख बांग्लादेशी शोधकर्ता मेघना गुहठाकुरता, लेखक सलील त्रिपाठी और पाकिस्तानी इतिहासकार शुजा नवाज़ जैसे विशेषज्ञों के साक्षात्कार हैं, जो इस नरसंहार को तीनों पक्षों से विश्लेषित करते हैं। फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे भारत ने एक करोड़ शरणार्थियों को शरण दी, उनकी देखभाल की और अंततः युद्ध लड़कर बांग्लादेश की आज़ादी सुनिश्चित की।
निर्माताओं के अनुसार, ‘Bay of Blood’ सिर्फ़ अतीत की कहानी नहीं, बल्कि आज के दौर में भी चेतावनी है कि जब विश्व समुदाय चुप रहता है, तो नरसंहार होते हैं। यह फिल्म बांग्लादेश के लोगों की अतुलनीय सहनशक्ति और स्वाधीनता संग्राम को सलाम करती है, साथ ही भारत-बांग्लादेश के साझा इतिहास और बलिदान को रेखांकित करती है।
फिल्म अब विभिन्न अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म्स और फिल्म फेस्टिवलों में प्रदर्शित की जा रही है और इसे 1971 के नरसंहार को आधिकारिक रूप से “जेनोसाइड” के रूप में मान्यता दिलाने की मुहिम का अहम हिस्सा माना जा रहा है।

