यह टिप्पणी एक एसिड अटैक सर्वाइवर शाहीन मलिक की याचिका पर सुनवाई के दौरान आई। शाहीन ने 2009 में हरियाणा में अपने कार्यस्थल के बाहर हमले का शिकार बनाई गई थीं। तब वह 26 वर्ष की एमबीए छात्रा थीं। हमले के बाद उन्हें 25 पुनर्निर्माण सर्जरी करानी पड़ीं। उनकी याचिका में न केवल बाहरी हमलों के पीड़ितों, बल्कि जबरन एसिड पिलाए जाने वाले मामलों को भी कवर करने की मांग की गई है। शाहीन ने बताया कि ऐसे कई पीड़ितों के घाव ‘अदृश्य’ होते हैं, लेकिन वे उतनी ही पीड़ा झेलते हैं—बार-बार अस्पताल जाना, चलने में असमर्थता या कृत्रिम फूड पाइप की जरूरत पड़ती ही रहती है।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच—जिसमें सीजेआई सूर्या कांत और जस्टिस ज्योमल्या बागची शामिल थे—ने शाहीन के मामले में 16 वर्षों से अधिक की देरी पर हैरानी जताई। सीजेआई ने कहा, “राष्ट्रीय राजधानी इस चुनौती का सामना नहीं कर पा रही, तो कौन करेगा? यह व्यवस्था का मजाक है।” याचिका में खुलासा हुआ कि शाहीन का मुकदमा हरियाणा से दिल्ली के रोहिणी कोर्ट में स्थानांतरित होने के बाद भी ‘अंतिम बहस’ के चरण में अटका हुआ है। आरोपी अभी तक सजा से बच निकले में कामयाब हैं। सीजेआई ने शाहीन को अलग आवेदन दाखिल करने की सलाह दी, ताकि कोर्ट स्वत: संज्ञान लेकर मुकदमे को रोजाना सुनवाई के साथ आगे बढ़ा सके।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, जो केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे थे, ने सीजेआई की राय से सहमति जताई। उन्होंने कहा कि एसिड हमलावर, जो ज्यादातर महिलाओं और नाबालिगों को जीवनभर के अंदरूनी-बाहरी घाव देते हैं, उन्हें ‘उनकी ही तरह निर्दयता’ का सामना करना चाहिए। मेहता ने याचिका का समर्थन करते हुए कहा कि पीड़ितों को निश्चित रूप से विकलांग माना जाना चाहिए और उन्हें अधिनियम के तहत लाभ मिलना चाहिए। सीजेआई ने केंद्र से अध्यादेश लाने पर विचार करने को कहा।
कोर्ट ने एसिड अटैक मामलों की तेज सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित करने का सुझाव भी दिया, जहां मुकदमे दिन-प्रतिदिन चले। सभी राज्य हाई कोर्टों के रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया गया कि वे एसिड अटैक के लंबित मुकदमों की संख्या और विवरण एक सप्ताह में प्रस्तुत करें। शाहीन ने बेंच को संबोधित करते हुए पुलिस पर अविश्वास जताया और कहा कि वह अब केवल मुआवजे की चाहत रखती हैं, सजा की नहीं। हालांकि, एक महिला न्यायिक अधिकारी के हस्तक्षेप से उन्हें न्यायपालिका पर भरोसा जागा।
शाहीन ने 2021 में ‘ब्रेव सोल्स’ नामक संगठन की स्थापना की, जो अब पूरे देश में फैल चुका है। यह एसिड अटैक सर्वाइवर्स को चिकित्सा और कानूनी सहायता प्रदान करता है। उनकी याचिका ने न केवल व्यक्तिगत पीड़ा को उजागर किया, बल्कि पूरे सिस्टम की कमियों को भी उजागर किया है। विशेषज्ञों का मानना है कि एसिड अटैक कानून (2013) लागू होने के बावजूद, मुकदमों में देरी और पीड़ितों को सामाजिक सुरक्षा की कमी एक बड़ी समस्या बनी हुई है।
सुप्रीम कोर्ट की यह पहल एसिड अटैक पीड़ितों के लिए एक नई उम्मीद की किरण है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि कानूनी सुधारों के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता और एसिड बिक्री पर सख्त नियंत्रण जरूरी है। कोर्ट की अगली सुनवाई में केंद्र का जवाब आएगा।

