Supreme Court Judge News: हिंदी न जानने के कारण दक्षिण भारतीय अलग-थलग नहीं होना चाहते, भाषाई विविधता पर जोर!

Supreme Court Judge  News: भारत की भाषाई विविधता को रेखांकित करते हुए सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने बुधवार को कहा कि दक्षिण भारतीय हिंदी न जानने के कारण अलग-थलग पड़ना नहीं चाहते। न्यायपालिका में हिंदी के उपयोग पर उठे सवाल के जवाब में उन्होंने अंग्रेजी को दक्षिणी राज्यों को जोड़ने वाली कड़ी बताया और भाषा के मामले में संयम बरतने की अपील की। यह बयान भाषाई एकरूपता बनाम क्षेत्रीय विविधता की बहस को नई गति दे सकता है, जो लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक विमर्श का हिस्सा रहा है।

जस्टिस नागरत्ना का यह बयान सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) के एक कार्यक्रम के दौरान आया, जहां मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) जस्टिस सूर्यकांत ने स्थानीय भाषाओं में निपुण लेकिन अंग्रेजी से अनभिज्ञ वकीलों के लिए उठाए जा रहे कदमों पर एक महिला वकील के सवाल का जवाब दिया था। जस्टिस नागरत्ना ने स्पष्ट किया कि उनका इशारा राजनीति की ओर नहीं है, बल्कि भारत को एक उपमहाद्वीप के रूप में समझने की जरूरत पर है। “हम भाषा में बहुत एकांगी नहीं हो सकते।

दक्षिण भारत में कम से कम छह भाषाएं हैं, और संविधान की आठवीं अनुसूची में इतनी सारी भाषाएं शामिल हैं,” उन्होंने कहा।
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि तमिलनाडु में जाकर संवाद करना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, जहां न तो अंग्रेजी बोली जाती है और न ही हिंदी। “हम दक्षिण से आते हैं, इसलिए कह रहे हैं कि हिंदी न जानने के कारण अलग-थलग न पड़ जाएं। इसमें संयम जरूरी है,” जस्टिस नागरत्ना ने जोर देकर कहा।

उन्होंने जिला अदालतों में स्थानीय भाषाओं (जैसे कन्नड़, तमिल) के उपयोग को स्वीकार किया, लेकिन उच्च न्यायालयों और संवैधानिक मामलों में अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा बताते हुए कहा कि इससे जजों का स्थानांतरण सुगम होता है। “अन्यथा, विभिन्न उच्च न्यायालयों में जजों का ट्रांसफर कैसे होगा?”
यह बयान भारत में भाषा नीति की जटिलताओं को उजागर करता है। एक ओर केंद्र सरकार हिंदी को राष्ट्रीय एकीकरण का माध्यम मानकर इसका प्रचार-प्रसार कर रही है, वहीं दक्षिणी राज्य इसे ‘हिंदी थोपने’ के रूप में देखते हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे राज्यों में हाल के वर्षों में हिंदी अनिवार्य शिक्षा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए हैं, जहां क्षेत्रीय भाषाओं को संरक्षित करने की मांग तेज हुई है। जस्टिस नागरत्ना का जोर भाषाई समावेशिता पर है, जो द्रविड़ आंदोलन की ऐतिहासिक चिंताओं को प्रतिबिंबित करता है।

प्रतिक्रियाएं
बयान पर प्रतिक्रियाएं तुरंत शुरू हो गईं, हालांकि यह मुद्दा अभी उभर रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व ट्विटर) पर कुछ यूजर्स ने जस्टिस नागरत्ना की बात को भाषाई समानता की दिशा में सकारात्मक कदम बताया। दक्कन हेराल्ड जैसे मीडिया आउटलेट्स ने इसे ‘भाषाई विविधता का उत्सव’ करार दिया। एक यूजर ने लिखा, “दक्षिण भारत की वास्तविकता को बखूबी बयान किया। अंग्रेजी ही हमारा ब्रिज है।”

हालांकि, कुछ ने इसे ‘अनावश्यक घबराहट’ या ‘कार्यकर्ता-शैली की टिप्पणी’ कहा। एक एक्स पोस्ट में कहा गया, “कुछ बातें सही हैं, लेकिन बाकी तो एक्टिविस्टों जैसी लगती हैं।” हिंदी प्रचार के पक्षधरों में यह बयान ‘हिंदी-विरोधी’ के रूप में देखा जा सकता है, जो उत्तर भारत में बहस छेड़ सकता है। राजनीतिक दलों से अभी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन दक्षिणी दलों जैसे डीएमके और एआईएडीएमके इसे समर्थन दे सकते हैं, जबकि बीजेपी इसे ‘भाषाई विभाजनकारी’ बता सकती है।

पृष्ठभूमि
भारत में भाषा विवाद नया नहीं है। 1960 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन ने राज्य की राजनीति को आकार दिया। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं हैं, लेकिन न्यायपालिका में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के नियमों के तहत उच्च न्यायालयों में हिंदी का उपयोग वैकल्पिक है, लेकिन जिला स्तर पर स्थानीय भाषाएं प्रचलित हैं। हाल के वर्षों में, केंद्र की ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ पहल के तहत हिंदी को बढ़ावा देने के प्रयासों ने दक्षिण में असंतोष पैदा किया है।
जस्टिस नागरत्ना, जो सुप्रीम कोर्ट की एकमात्र महिला जज हैं, पहले भी न्यायिक स्वतंत्रता और समावेशिता पर बोल चुकी हैं। उनका यह बयान न्यायपालिका को अधिक समावेशी बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह बहस अब संसद में भाषा नीति पर चर्चा को प्रेरित कर सकती है।

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