Nazi Germany/World War News: विश्व युद्ध के दौरान नाज़ी जर्मनी के खिलाफ लड़ने वाली सबसे साहसी और रहस्यमयी महिला जासूसों में से एक, नूर इनायत खान को फ्रांस ने हाल ही में एक स्मारक डाक टिकट जारी करके सम्मानित किया है। कोडनेम “मेडेलीन” से जानी जाने वाली नूर, फ्रेंच रेसिस्टेंस के लिए एक ऐसी शख्सियत थीं जो धुएँ की तरह आती-जाती दिखती थीं। वह ब्रिटेन द्वारा नाज़ी-कब्ज़े वाले फ्रांस में भेजी गई पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर थीं।
कौन थीं नूर इनायत खान?
नूर इनायत खान का जन्म 1 जनवरी 1914 को मॉस्को में हुआ था। उनके पिता हज़रत इनायत खान एक भारतीय सूफी संत और संगीतकार थे, जो प्रसिद्ध बैरागी संगीतकार टीपु सुल्तान के वंशज थे। माँ अमेरिकी थीं। बचपन का अधिकांश समय नूर ने लंदन और पेरिस में बिताया। उन्होंने पेरिस की सोरबोन यूनिवर्सिटी से बाल मनोविज्ञान में डिग्री ली और बच्चों की कहानियाँ व कविताएँ लिखती थीं। वह शांतिप्रिय सूफी परिवार से थीं और अहिंसा में गहरा विश्वास रखती थीं।
1940 में जब जर्मनी ने फ्रांस पर कब्ज़ा कर लिया, तब नूर अपने परिवार के साथ ब्रिटेन भाग आईं। वहाँ उन्होंने महिला सहायक वायु सेना (WAAF) जॉइन की और बाद में स्पेशल ऑपरेशंस एक्ज़ीक्यूटिव (SOE) में भर्ती हो गईं। SOE ब्रिटेन की गुप्त खुफिया एजेंसी थी जो यूरोप में प्रतिरोध आंदोलनों की मदद करती थी।
नाज़ी क्षेत्र में खतरनाक मिशन
जून 1943 में नूर को पैराशूट से फ्रांस में उतारा गया। उस समय जर्मन गेस्टापो ने पेरिस के अधिकांश ब्रिटिश एजेंटों को पकड़ लिया था या मार डाला था। नूर अकेली बचीं और लगातार तीन महीनों तक उन्होंने अकेले पूरे पेरिस नेटवर्क का वायरलेस संचालन किया। वह लगातार जगह बदलती रहती थीं, अपने बालों का रंग बदलती थीं और अलग-अलग नामों से काम करती थीं। उनके साथी उन्हें “धुएँ की तरह गायब हो जाने वाली महिला” कहते थे।
उनके संदेशों की वजह से सैकड़ों ब्रिटिश पायलट और फ्रांसीसी प्रतिरोध सेनानी सुरक्षित बचाए गए। नूर ने कई बार मौत को बहुत करीब से देखा, लेकिन कभी हार नहीं मानी।
गिरफ्तारी और शहादत
अक्टूबर 1943 में एक दोहरे एजेंट ने उन्हें धोखा दिया और गेस्टापो ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। पूछताछ के दौरान उन्होंने एक शब्द भी नहीं उगला। दस महीने तक उन्हें दाचाउ और फिर पफोर्ज़हाइम जेल में एकांत कारावास में रखा गया, हाथ-पैरों में बेड़ियाँ डाली गईं। फिर भी उन्होंने भागने की दो बार कोशिश की।
13 सितंबर 1944 को नूर को दाचाउ कॉन्सेंट्रेशन कैंप ले जाया गया और अन्य तीन महिला एजेंटों के साथ उन्हें क्रूरता से पीट-पीटकर मार डाला गया। उनकी आखिरी आवाज़ कथित तौर पर “लिबर्ते!” (आज़ादी!) थी। मरणोपरांत उन्हें ब्रिटेन का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान जॉर्ज क्रॉस और फ्रांस का क्रॉइक्स दे गेरे (Croix de Guerre) दिया गया।
फ्रांस का नया सम्मान
2025 में फ्रांस ने नूर इनायत खान के सम्मान में एक विशेष डाक टिकट जारी किया है। यह टिकट उनकी बहादुरी और फ्रांस की आज़ादी में उनके योगदान को याद करता है। ब्रिटेन में उनकी प्रतिमा गॉर्डन स्क्वायर, लंदन में लगी हुई है और उनकी स्मृति में कई किताबें, फिल्में और डॉक्यूमेंट्री बन चुकी हैं।
एक शांतिप्रिय सूफी लड़की, जो बच्चों की कहानियाँ लिखती थी, ने दुनिया के सबसे खतरनाक तानाशाह के खिलाफ खुली जंग लड़ी और अपनी जान कुर्बान कर दी। नूर इनायत खान की कहानी साहस, त्याग और मानवता की अनुपम मिसाल है।
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