यह बयान उत्तर प्रदेश की अल-फलाह यूनिवर्सिटी से जुड़े हालिया विवाद के बीच आया है, जहां वीसी की नियुक्ति को लेकर सवाल उठे हैं। मदनी का यह कथन सोशल मीडिया और न्यूज चैनलों पर तेजी से वायरल हो रहा है, जिससे राजनीतिक और सामाजिक बहस छिड़ गई है।
मौलाना मदनी ने अपने बयान में कहा, “भारत में मुस्लिम संस्थानों की स्वायत्तता पर सवाल उठ रहे हैं। यहां तक कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भी कोई मुस्लिम वाइस चांसलर नहीं बन सकता, क्योंकि सत्ता की दखलंदाजी सब जगह है।” यह टिप्पणी उन्होंने एक धार्मिक सम्मेलन के दौरान की, जहां वे मुस्लिम शिक्षा संस्थानों की आजादी और सरकारी हस्तक्षेप पर बोल रहे थे। एक न्यूज चैनल के एक वीडियो में उनका यह बयान कैद हुआ है, जो अब सोशल मीडिया पर लाखों व्यूज बटोर चुका है।
यह पहली बार नहीं है जब मौलाना अरशद मदनी के बयानों ने विवाद खड़ा किया हो। 2023 में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अधिवेशन में उन्होंने ‘ओम’ और ‘अल्लाह’ को एक बताकर हंगामा मचा दिया था, जिसके बाद शंकराचार्य समेत कई हिंदू और मुस्लिम नेताओं ने नाराजगी जताई। मदनी को बाद में अपने बयान पर सफाई देनी पड़ी थी। इसी तरह, 2024 में लोकसभा चुनाव परिणामों को लेकर उन्होंने भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों को जिम्मेदार ठहराया, जिस पर राजनीतिक दलों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। हाल ही में वक्फ एक्ट और प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट पर उनके बयान भी चर्चा में रहे, जहां उन्होंने इन्हें मुस्लिम संपत्तियों पर हमला बताया।
अल-फलाह यूनिवर्सिटी कांड के संदर्भ में मदनी का बयान और भी संवेदनशील हो जाता है। यह यूनिवर्सिटी, जो मुस्लिम समुदाय द्वारा संचालित है, हाल ही में वीसी नियुक्ति विवाद में फंसी, जहां गैर-मुस्लिम उम्मीदवार को प्राथमिकता देने के आरोप लगे।
शिक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में उच्च शिक्षा संस्थानों में वीसी की नियुक्ति यूजीसी नियमों के तहत होती है, लेकिन अल्पसंख्यक संस्थानों को संवैधानिक संरक्षण मिला हुआ है।
फिर भी, मदनी का दावा है कि व्यावहारिक रूप से सरकारी दबाव के कारण मुस्लिम उम्मीदवारों को नजरअंदाज किया जाता है।
इस बयान पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं तेज हैं। भाजपा प्रवक्ताओं ने इसे ‘समुदायों को बांटने की साजिश’ करार दिया, जबकि विपक्षी दलों ने शिक्षा में अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा की मांग की। मुस्लिम संगठनों में भी दो राय हैं—कुछ ने मदनी के समर्थन में आवाज उठाई, तो कुछ ने इसे अतिशयोक्ति बताया।
एक मुस्लिम स्कॉलर ने कहा, “शिक्षा संस्थानों में भेदभाव अस्वीकार्य है, लेकिन ऐसे बयान तनाव बढ़ाते हैं।”
मौलाना अरशद मदनी, जो दारुल उलूम देवबंद से जुड़े हैं, लंबे समय से मुस्लिम हितों की पैरवी करते आए हैं। वे आजादी के आंदोलन में उलेमा के योगदान को रेखांकित करते रहते हैं।
लेकिन उनके बयान अक्सर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा देते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह विवाद शिक्षा नीति पर व्यापक बहस को जन्म दे सकता है, खासकर अल्पसंख्यक संस्थानों की स्वतंत्रता को लेकर।
जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने अभी तक इस बयान पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर और चर्चा होने की संभावना है। देशभर के मुस्लिम समुदाय में यह सवाल गूंज रहा है—क्या शिक्षा में भी भेदभाव की जड़ें गहरी हो रही हैं?

