भोजपुर की मुसहर टोली: औरते बेचती शराब, बड़ी जात के लोग करते शोषण, कहां गया छुआछूत, जहां सपने सिर्फ़ धूल चाटते

Ara Bhojpur News: बिहार के भोजपुर जिले की धुंधली गलियों में, जहां सूरज की किरणें भी मुश्किल से पहुंचती हैं, एक ऐसी बस्ती बसी है जहां भूख का स्वर हर शाम गूंजता है। मुसहर समुदाय की यह टोली—जिसे दुनिया ‘चूहा शिकारी’ कहकर ताने मारती है—आज भी जीविका के लिए चूहों पर निर्भर है। 21वीं सदी के डिजिटल युग में, यहां के लोग न तो मोबाइल की स्क्रीन देख पाते हैं, न ही सरकारी योजनाओं की चकाचौंध। यहां धूल सपनों पर जमी रहती है, और भूख का राग अनसुना बजता रहता है।

मुसहर समुदाय, बिहार की सबसे वंचित महादलित जातियों में शुमार, भोजपुर सहित पूरे राज्य में करीब 40 लाख की आबादी वाला यह समूह भूमिहीन मजदूरों का प्रतीक बन चुका है।

भोजपुर के चौराई मुसहर टोली या धरहरा मुसहर बस्ती जैसे इलाकों में 90 फीसदी से अधिक परिवार मजदूरी पर निर्भर हैं। एक छोटे से 8×8 के कमरे में 10-12 लोग ठूंसकर रहते हैं—कोई शौचालय नहीं, कोई स्वच्छ पानी नहीं। हाल ही में जारी एक वीडियो में दिखाया गया कि कैसे महिलाएं अवैध शराब बेचने को मजबूर हैं, जबकि समाज का दोहरा चरित्र उन्हें हाथ का पानी तक न पीने देता है।

गरीबी का चक्र: चूहा खाकर गुजारा, शिक्षा से कोसों दूर
“हमारे लिए चूहा ही सब्जी है, चावल ही रोटी,” कहती हैं चौराई टोली की 35 वर्षीय विधवा राधा देवी। उनके पति शराब और टीबी से मात्र 32 साल की उम्र में चल बसे। मुसहर टोलियों में युवा विधवाओं की संख्या इतनी है कि यह सामान्य बन चुकी है। पुरुषों की औसत आयु 30-35 वर्ष ही रह गई है—शराबखोरी, कुपोषण और बिना इलाज के बीमारियां ही जिम्मेदार हैं।

बच्चों की हालत और भी दयनीय है। साक्षरता दर मात्र 9.8 फीसदी है, जो पुरुषों में 5 फीसदी और महिलाओं में 3 फीसदी तक सिमटी हुई है। स्कूल जाने की उम्र में लड़कियां ‘डोलकड़ी’ जैसी कुप्रथा का शिकार हो रही हैं—शादी से पहले ससुराल भेज दी जाती हैं, जहां वे गर्भवती होकर लावारिस छोड़ दी जाती हैं।

14 वर्ष की वर्षा देवी जैसी लड़कियां मां बन चुकी हैं, जबकि सपना है आईएएस बनने का। सरकारी योजनाएं जैसे उज्जवला या जल जीवन मिशन इन तक पहुंच ही नहीं पातीं। सिलेंडर तो मिला, लेकिन महंगा होने से लकड़ी का चूल्हा ही सहारा है।

भोजपुर के महाराजा कॉलेज के छात्रों ने मार्च 2025 में एनजीओ ‘नई आशा’ के साथ एक सर्वे किया, जिसमें पाया गया कि मुसहर परिवारों में कुपोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी सबसे बड़ी समस्या है। साहदेवा फाउंडेशन की रिपोर्ट बताती है कि यहां के 200 से अधिक बच्चों को पोषण भोजन मिला है, लेकिन यह बूंद-बूंद की कोशिश है सागर की प्यास बुझाने जैसी।

जातिवाद का काला साया: शोषण और बहिष्कार
मुसहरों का नाम ‘मुस + आहार’ से पड़ा—चूहा खाने वाले। लेकिन यह मजबूरी है, न कि पसंद। भोजपुर की टोलियों में छुआछूत का क्रूर चेहरा आज भी जीवित है। ऊंची जातियों के लोग दिन में पानी तक नहीं छूते, लेकिन रात में अवैध शराब के लिए आते हैं। महिलाओं का यौन शोषण आम है, और बाल विवाह 14-15 साल की उम्र में ही तय हो जाता है।

राजनीतिक रूप से, मुसहर बिहार का तीसरा सबसे बड़ा दलित समूह है (3.08 फीसदी आबादी), जो 2025 विधानसभा चुनावों में किंगमेकर बन सकता है। हम (HAM) जैसे दल उनके समर्थन पर निर्भर हैं, लेकिन जमीनी बदलाव न के बराबर। हाल के सर्वे में मुसहर मतदाता नितीश-तेजस्वी दोनों से नाराज दिखे—“कौन सत्ता में आए, कुछ नहीं बदलता।”

आशा की किरण: फरिश्तों का साथ
इस अंधेरे में कुछ रोशनी है। भोजपुर के समाजसेवी भीम सिंह भवेश, जिन्हें जनवरी 2025 में पद्मश्री मिला, ने 22 वर्षों में 8,000 मुसहर बच्चों का स्कूल में दाखिला कराया। उनकी संस्था ‘नई आशा’ ने लाइब्रेरी बनाई, जहां 125 बच्चे छात्रवृत्ति पा रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मन की बात’ में भवेश की तारीफ की, कहा—“मुसहर एक अत्यंत वंचित समुदाय है, लेकिन ऐसे फरिश्ते बदलाव ला रहे हैं।”

अप्रैल 2025 में भोजपुर प्रशासन ने चौराई टोली में विकास शिविर लगाया, जहां बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती पर माल्यार्पण हुआ। लेकिन स्थानीय निवासी कहते हैं, “ये शिविर आते-जाते हैं, लेकिन पानी का नल आज तक नहीं लगा।”

आगे का रास्ता: नीति से परे, इच्छाशक्ति चाहिए
मुसहरों की कहानी सिर्फ भोजपुर की नहीं, बिहार की है। महादलित आयोग की सिफारिशें और नीतीश कुमार की योजनाएं कागजों पर हैं, लेकिन जमीनी क्रियान्वयन नदारद। विशेषज्ञों का कहना है कि भूमि सुधार, शिक्षा पर फोकस और कुप्रथाओं के खिलाफ सख्ती ही रास्ता है।

जब तक मुसहर टोली की धूल साफ नहीं होगी, भारत का विकास अधूरा रहेगा। क्या 2025 के चुनाव इस समुदाय को वाकई आवाज देंगे, या फिर वोट बैंक बनाकर भूल जाएंगे? सवाल अनुत्तरित है, लेकिन भूख का स्वर बजता रहेगा।

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