माँ दुर्गा की मूर्ति में वेश्यालय की मिट्टी का इस्तेमाल, एक प्राचीन परंपरा जो समाज को सिखाती है समानता का पाठ

The use of brothel soil in the idol of Goddess Durga: नवरात्रि का पावन पर्व शुरू हो चुका है, और पूरे देश में माँ दुर्गा की भव्य प्रतिमाओं स्थापना भी हो चुका है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन प्रतिमाओं को बनाने के लिए एक ऐसी मिट्टी का इस्तेमाल होता है, जो समाज के सबसे हाशिए पर रहने वाले तबके से आती है? जी हाँ, हम बात कर रहे हैं वेश्यालय के आंगन की मिट्टी की, जिसे ‘निषिद्ध पल्ली’ या ‘पुण्य माटी’ कहा जाता है। यह 500 साल पुरानी परंपरा आज भी बंगाल के कुमरटुली इलाके में जीवित है, जहाँ मूर्तिकार माँ की प्रतिमा को पूर्ण करने के लिए वेश्याओं से सिर झुकाकर मिट्टी मांगते हैं। लेकिन यह परंपरा छुपाई क्यों जाती है? और इसके पीछे का सच क्या है? आइए, इस रहस्य को खोलते हैं।

परंपरा की शुरुआत: एक भक्त की कथा और शिव का वरदान
पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह रिवाज एक वेश्या की सच्ची भक्ति से जुड़ा है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में एक वेश्या माँ दुर्गा की परम भक्त थी। समाज के तिरस्कार से दुखी वह मंदिर नहीं जा पाती थी, लेकिन घर में ही पूजा करती थी। एक बार भगवान शिव ने उसके दुख को देखा और प्रसन्न होकर प्रकट हुए। वेश्या ने विनती की कि उसके आंगन की मिट्टी के बिना माँ दुर्गा की कोई मूर्ति पूर्ण न मानी जाए। शिव ने यह वरदान दे दिया। तब से, माँ की प्रतिमा को बनाने के लिए चार मुख्य सामग्रियाँ जरूरी मानी जाती हैं: गंगा तट की मिट्टी, गोमूत्र, गोबर और वेश्यालय की मिट्टी। बिना इनमें से किसी के, मूर्ति ‘अधूरी’ रहती है।

एक अन्य मान्यता यह भी है कि जब कोई व्यक्ति वेश्यालय में प्रवेश करता है, तो वह अपनी सारी पुण्यता और शुद्धता द्वार पर ही छोड़ देता है। इसीलिए आंगन की मिट्टी सबसे पवित्र मानी जाती है। यह परंपरा न केवल वेश्याओं को सम्मान देती है, बल्कि समाज को याद दिलाती है कि देवी हर रूप में निवास करती हैं – चाहे वह गृहिणी हो या हाशिए पर धकेली गई स्त्री।

कुमरटुली से सोनागाछी: कैसे इकट्ठी होती है यह मिट्टी?
कोलकाता का कुमरटुली इलाका भारत की सबसे प्रसिद्ध मूर्ति बनाने की जगह है। यहाँ सैकड़ों कारीगर नवरात्रि से महीनों पहले काम शुरू कर देते हैं। मूर्ति बनाने के लिए वे सोनागाछी जैसे रेड-लाइट एरिया जाते हैं। पुजारी या मूर्तिकार वेश्याओं के द्वार पर सिर झुकाकर भीख मांगते हैं। वेश्याएँ मिट्टी दान करती हैं, मानो यह आशीर्वाद हो। फिल्म ‘देवदास’ में भी यह दृश्य दिखाया गया है, जहाँ चंद्रमुखी (माधुरी दीक्षित) ऐश्वर्या राय को मिट्टी देती हैं।
यह प्रथा न केवल बंगाल तक सीमित है, बल्कि असम, ओडिशा और नेपाल के कुछ हिस्सों में भी साक्त परंपराओं में इसका उल्लेख मिलता है। लेकिन आजकल आधुनिकता के चलते कुछ जगहों पर यह मिट्टी दुकानों से भी उपलब्ध हो जाती है। फिर भी, परंपरा निभाने वाले कारीगर इसे ‘भीख’ के रूप में ही लेना पसंद करते हैं, ताकि वेश्याओं को समाज का हिस्सा है ऐसा वो महसूस करा सके।

छुपाने की सच्चाई: सामाजिक कलंक या सम्मान का प्रतीक?
सोशल मीडिया पर यह दावा अक्सर वायरल होता है कि यह ‘500 साल पुराना सच छुपाया गया है’। लेकिन वास्तव में, यह कोई रहस्य नहीं, बल्कि एक खुली परंपरा है जो हिंदू तंत्र और शाक्त दर्शन से जुड़ी है। वेदों में नौ प्रकार की स्त्रियों (नवकन्या) का उल्लेख है, जिसमें वेश्या भी शामिल है। यह रिवाज समाज के बहिष्कृत वर्गों को शामिल करने का तरीका है – एक तरह का सामाजिक समावेश।

हालाँकि, आलोचना भी कम नहीं। कुछ लोग इसे पाखंड मानते हैं, क्योंकि पूरे साल वेश्याओं को तिरस्कार मिलता है, लेकिन पूजा के दिनों में ही उनकी मिट्टी पवित्र हो जाती है। 2024 में सोनागाछी की सेक्स वर्कर्स ने आरजी कर रेप केस के विरोध में मिट्टी देने से इंकार कर दिया था, कहते हुए कि जब तक महिलाओं को न्याय न मिले, तब तक देवी की पूजा अधूरी है। यह घटना परंपरा को नया आयाम देती है – सम्मान के साथ-साथ न्याय की मांग।

निष्कर्ष: माँ दुर्गा का संदेश – सभी स्त्रियाँ शक्ति हैं
यह परंपरा हमें सिखाती है कि शक्ति का स्वरूप सीमित नहीं। माँ दुर्गा असुरों का संहार करने वाली योद्धा हैं, जो हर रूप में पूजनीय हैं। वेश्यालय की मिट्टी का इस्तेमाल न केवल धार्मिक रिवाज है, बल्कि समाज को आईना दिखाने का माध्यम भी। आज जब नवरात्रि का आगमन हो गया है, तो आइए हम इस परंपरा से प्रेरणा लें – हर स्त्री को सम्मान दें, चाहे समाज उसे कितना ही नीचा दिखाए। जय माँ दुर्गा! शक्ति की जय!

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