जाति आधारित रैलियों पर रोक, संजय निषाद से लेकर चंद्रशेखर आजाद तक, योगी सरकार पर सियासी तीरों की बौछार

Ban on caste-based rallies: उत्तर प्रदेश में जाति आधारित राजनीतिक रैलियों पर लगी रोक ने सियासी हलकों में हंगामा मचा दिया है। 21 सितंबर को जारी सरकारी आदेश, जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर आधारित है, ने न केवल विपक्ष को बल दिया है, बल्कि भाजपा की सहयोगी पार्टियों को भी असहज कर दिया है। इस फैसले से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाली जाति-आधारित राजनीति करने वाली पार्टियों में निषाद पार्टी से लेकर आजाद समाज पार्टी तक शामिल हैं। खासकर चंद्रशेखर आजाद उर्फ ‘रावण’ की दलित-केंद्रित राजनीति पर इस रोक का क्या असर पड़ेगा, यह सवाल अब जोर पकड़ रहा है, क्योंकि उनकी रणनीति भी जातिगत एकजुटता पर टिकी हुई है।

सरकार के 10-सूत्रीय आदेश में जाति आधारित रैलियों, वाहनों व साइनबोर्ड पर जातिगत नामों के प्रदर्शन और पुलिस रिकॉर्ड्स में जाति उल्लेख पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। इसका मकसद सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना बताया जा रहा है। लेकिन विपक्ष इसे ‘आंखों में धूल झोंकने’ वाला कदम करार दे रहा है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इसे ‘कॉस्मेटिक’ बदलाव कहा, जबकि बहुजन समाज पार्टी की मायावती ने इसे दलित-वंचित वर्गों को दबाने की साजिश बताया।

इस बीच, भाजपा की सहयोगी निषाद पार्टी के अध्यक्ष और कैबिनेट मंत्री संजय निषाद सबसे मुखर नजर आ रहे हैं। उन्होंने फैसले को ‘गलत’ बताते हुए कहा कि इसे तुरंत समीक्षा की जरूरत है। निषाद ने योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और चेतावनी दी है कि इससे पिछड़े वर्गों की आवाज दब जाएगी। निषाद पार्टी, जो निषाद समुदाय (ओबीसी) की राजनीति पर निर्भर है, के लिए यह रोक वोट बैंक पर सीधी चोट है। पार्टी नेता ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी इसी असर का शिकार हो सकती है।

लेकिन इस रोक का सबसे गहरा असर उन पार्टियों पर पड़ सकता है जो दलित अस्मिता को रावण के प्रतीक के जरिए उभारती हैं। आजाद समाज पार्टी (कांशी राम) के संस्थापक और नगीना से सांसद चंद्रशेखर आजाद, जिन्हें ‘रावण’ के नाम से जाना जाता है, ने इस आदेश पर तीखा प्रहार किया है। उन्होंने कहा, “अगर सरकार या अदालतें सच में जातिवाद मिटाना चाहती हैं, तो सिर्फ रैलियों पर रोक लगाकर या एफआईआर से जाति हटाकर काम नहीं चलेगा। सबसे पहले सरनेम (जातिगत उपनाम) पर रोक लगे, आरक्षण में जातिगत भेदभाव खत्म हो और भर्तियों में पारदर्शिता आए।” आजाद का यह बयान उनके फेसबुक और एक्स (पूर्व ट्विटर) पोस्ट से लिया गया है, जहां उन्होंने इसे ‘अधूरा और दिखावटी’ कदम बताया।

चंद्रशेखर आजाद की राजनीति भीम आर्मी के जरिए दलित युवाओं की आक्रोशित आवाज को संगठित करने पर आधारित है। 2024 के लोकसभा चुनाव में नगीना सीट से उनकी जीत ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ की ताकत दिखाई थी। लेकिन जाति आधारित रैलियां उनकी रणनीति का अहम हथियार रही हैं, जहां रावण पूजा और बाबासाहेब आंबेडकर की विरासत को जोड़कर भीड़ जुटाई जाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस रोक से उनकी गतिविधियां भूमिगत हो सकती हैं या वे रचनात्मक तरीके अपनाकर ‘जाति-रहित’ दिखने वाली रैलियां करेंगे, जैसे सामाजिक न्याय या आरक्षण पर फोकस। हालांकि, आजाद ने चेतावनी दी है कि अगर कोई नुकसान होता है, तो वह भाजपा की सहयोगी पार्टियों को ही भुगतना पड़ेगा।

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह रोक जातीय जनगणना की मांग के बीच आना संयोग नहीं है। इससे भाजपा को फायदा तो मिल सकता है, क्योंकि यह हिंदू एकता का संदेश देता है, लेकिन सहयोगी दलों का असंतोष बढ़ा सकता है। विपक्षी दल इसे भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे एसपी और आजाद समाज पार्टी मिलकर ‘जाति-विरोधी’ मोर्चा बना सकते हैं। आने वाले दिनों में सहारनपुर और मेरठ जैसे दलित बाहुल्य इलाकों में टकराव की स्थिति बनती हुई नजर आ रही है।

कुल मिलाकर, जाति आधारित रैलियों पर रोक ने उत्तर प्रदेश की सियासत को नया मोड़ दिया है। संजय निषाद की बगावत से लेकर चंद्रशेखर आजाद की आलोचना तक, यह फैसला भाजपा के लिए दोहरी तलवार साबित हो रहा है। क्या यह सामाजिक सुधार का कदम बनेगा या सियासी घाव बढ़ाएगा, यह तो समय ही बताएगा।

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