Muslims can’t join the BJP and Bhumihars can’t leave it: बिहार की राजनीति हमेशा से जाति-धर्म के जटिल जाल में उलझी रही है। यहां वोट बैंक की गणित इतनी सटीक है कि कोई भी दल बिना सवर्ण, पिछड़े या अल्पसंख्यक समीकरण के सोच भी नहीं सकता। लेकिन एक अजीब सा रहस्य है जो बरसों से बिहार की सियासत को परिभाषित कर रहा है—मुसलमान भाजपा से जुड़ नहीं सकते, क्योंकि हिंदुत्व का एजेंडा उन्हें डराता है, और भूमिहार भाजपा को छोड़ नहीं सकते, क्योंकि यादव-प्रधान विपक्ष उन्हें स्वीकार ही नहीं करता। यह विरोधाभास न केवल 2020 के विधानसभा चुनावों में दिखा, बल्कि आगामी 2025 के चुनावों में भी यह बिहार की सियासत का केंद्र बिंदु बने रहने की पूरी संभावना है।
बिहार में मुसलमानों की आबादी करीब 17 प्रतिशत है, जो किसी भी दल के लिए निर्णायक साबित हो सकती है। फिर भी, भाजपा ने कभी मुसलमान उम्मीदवारों को प्रमुखता से मैदान में उतारने की हिम्मत नहीं दिखाई। कारण साफ है—पार्टी जानती है कि हिंदुत्व की छवि के कारण मुसलमान वोटर उसका साथ नहीं देंगे। 2020 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने मुसलमान उम्मीदवारों को लगभग नजरअंदाज कर दिया था। हालांकि, हाल के दिनों में पार्टी ने पसमांदा (ओबीसी) मुसलमानों को लुभाने की कोशिश की है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह मात्र दिखावा है। राजनीतिक विश्लेषक प्रवीण प्रसाद कहते हैं, “भाजपा का हिंदुत्व एजेंडा मुसलमानों के लिए लाल झंडा है। वे राजद या जदयू जैसे दलों को ही पसंद करते हैं, जहां उनका वोट सुरक्षित लगता है।”
दूसरी ओर, राजद ने 2020 में 17 मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन यह संख्या उनकी आबादी के अनुपात में भी कम थी। फिर भी, मुसलमान वोट का बड़ा हिस्सा राजद के खेमे में ही गया। हालिया सर्वे बताते हैं कि 2025 के चुनावों में सीमांचल जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में यह ट्रेंड जारी रह सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, नीतीश कुमार के जदयू से नाराज मुसलमान वोट तेजस्वी यादव की ओर मुड़ सकते हैं, लेकिन भाजपा के लिए दरवाजा बंद ही रहेगा। सोशल मीडिया पर भी यह बहस गर्म है। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर एक यूजर ने लिखा, “बिहार में मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देंगे, क्योंकि लक्ष्य सिर्फ भाजपा को हराना है।”
अब बात भूमिहारों की। बिहार के उत्तरी और दक्षिणी जिलों में फैले इस सवर्ण समुदाय की आबादी करीब 4-5 प्रतिशत है, लेकिन उनका वोट बैंक भाजपा के लिए सोने की खान साबित होता है। भूमिहार 100 प्रतिशत भाजपा को समर्थन देते हैं, लेकिन इसका कारण प्यार कम और मजबूरी ज्यादा है। वे राजद में यादवों के दबदबे से डरते हैं और कांग्रेस को राजद का सहयोगी मानते हैं। जदयू को वे अस्थिर मानते हैं। 2020 के चुनावों में भाजपा ने 15 भूमिहार उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 8 जीते। उत्तरी बिहार में 7 में से 5 की जीत हुई, जबकि दक्षिणी बिहार में 8 में से सिर्फ 3 सफल रहे। कुल 21 भूमिहार विधायक चुने गए थे—भाजपा से 8, जदयू से 5, कांग्रेस से 4।
भूमिहारों की यह ‘वफादारी’ हालिया घटनाओं से भी झलकती है। अप्रैल 2025 में सोशल मीडिया पर एक पोस्ट वायरल हुई, जिसमें कहा गया, “मुसलमानों को भूमिहार से सीखना चाहिए—विरोध न करें, क्योंकि भाजपा का टारगेट मुसलमान है और विपक्ष का अगड़ी जातियां।” लेकिन क्या यह वफादारी हमेशा बनी रहेगी? विशेषज्ञों का कहना है कि प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भूमिहारों को नया विकल्प दे सकती है। किशोर ने हाल ही में कहा, “भूमिहार, यादव और मुसलमान—ये सभी जातियां अब बदलाव चाहती हैं।” फिर भी, भाजपा के चाणक्य अमित शाह ने बेगूसराय जैसे भूमिहार गढ़ में हाल ही में बैठक की, जहां उन्होंने कहा, “भूमिहार भाजपा की रीढ़ हैं।”
यह रहस्य बिहार की राजनीति को और जटिल बनाता है। 2025 के चुनावों में मुस्लिम वोट का ध्रुवीकरण तेजस्वी को फायदा दे सकता है, जबकि भूमिहारों का समर्थन भाजपा को मजबूत रखेगा। लेकिन अगर जन सुराज जैसी तीसरी ताकत उभरी, तो यह समीकरण बिगड़ सकता है। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि बिना जाति-धर्म के भय के बिहार की सियासत कभी परिपक्व नहीं हो पाएगी। जैसा कि एक पुरानी एक्स पोस्ट में कहा गया, “बिहार में वोट बैंक: भाजपा—भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत; राजद—यादव, मुसलमान। यही तो रहस्य है।”

