Bollywood Mohammad Aziz News: 1980 के दशक में बॉलीवुड की दुनिया में एक ऐसी आवाज गूंजी जो सुपरस्टार्स के चेहरों पर जान फूंक देती थी। मोहम्मद अज़ीज़, जिन्हें ‘मुन्ना’ के नाम से भी जाना जाता था, को महान गायक मोहम्मद रफी का सच्चा वारिस माना जाता था। अमिताभ बच्चन, अनिल कपूर, गोविंदा जैसे सितारों के लिए उनकी दमदार, ऊंचे सुरों वाली आवाज ने अनगिनत हिट गाने दिए। ‘माई नेम इज लखन’ और ‘मर्द तंगेवाला’ जैसे अमर गीत आज भी लोगों के दिलों में बसे हैं। लेकिन ये गायक, जिसने करीब 20,000 गाने गाए, अचानक से क्यों गायब हो गया? उनकी मेटियोरिक राइज और ट्रैजिक फॉल की ये अनकही कहानी आज भी बॉलीवुड के काले अध्यायों में शुमार है।
मोहम्मद अज़ीज़ का जन्म 2 जुलाई 1954 को पश्चिम बंगाल के अशोकनगर में एक सख्त मुस्लिम परिवार में हुआ था। संगीत से उनका पुराना नाता था। बचपन से ही रेडियो पर रफी साहब के गाने सुन-सुनकर वे उनकी नकल करने लगे। घर में संगीत को पसंद न करने के बावजूद, अज़ीज़ ने कोलकाता के ‘ग़ालिब’ रेस्टोरेंट में गाना गाकर अपना सफर शुरू किया। यहां उनकी सुरीली आवाज ने अमीर श्रोताओं का दिल जीत लिया। 1982 में वे मुंबई आ गए, जहां पहले बंगाली फिल्म ‘ज्योति’ और फिर ओडिया फिल्म ‘जगा हटारे पघा’ में गाने गाए। लेकिन असली ब्रेक मिला 1985 में आई फिल्म ‘मर्द’ से। संगीतकार अनु मलिक ने अमिताभ बच्चन के लिए ‘मर्द तंगेवाला’ गवाया। शुरू में लोग इसे शब्बीर कुमार की आवाज समझते थे, लेकिन हिट होते ही अज़ीज़ स्टार बन गए।
उनके करियर का स्वर्णिम दौर 1980-90 के दशक में आया। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे दिग्गज संगीतकारों की पहली पसंद बन गए। ‘खुदा गवाह’ का ‘तू ना जा मेरे बादशाह’, ‘दयावान’ का ‘आप के आ जाने से’, ‘राम लखन’ का ‘माई नेम इज लखन’ और ‘अमृत’ का ‘दुनिया में कितना ग़म है’ जैसे गाने सुपरहिट हुए। लता मंगेशकर, आशा भोसले, अनुराधा पौडवाल जैसी दिग्गजों के साथ उनके ड्यूएट्स ने उन्हें ‘सातवें सुर’ (उच्च पिच) का जादूगर बना दिया। उन्होंने हिंदी के अलावा बंगाली, ओडिया, तेलुगु जैसी 10 से ज्यादा भाषाओं में गाए, जिसमें भजन और सूफी गीत भी शामिल थे। स्टेज शोज़ से वे विदेशों तक पहुंचे। फिल्मफेयर में दो बार बेस्ट प्लेबैक सिंगर के लिए नामांकित हुए। अमिताभ, गोविंदा, अनिल कपूर, सनी देओल, मिथुन चक्रवर्ती जैसे सितारों के लिए उनकी आवाज परफेक्ट थी। अनु मलिक ने कहा था, “अज़ीज़ मेहनती और सीखने को तैयार हमेशा रहते थे।”
लेकिन 1990 के दशक में सब कुछ बदल गया। रफी और किशोर कुमार के जाने के बाद अज़ीज़ का दबदबा था, लेकिन नए सिंगर्स जैसे उदित नारायण, कुमार शानू, सोनू निगम का उदय हुआ। 90 के दशक में बॉलीवुड में मेलोडी के बजाय पॉप, रेमिक्स और इंडी-पॉप का बोलबाला हो गया। नदीम-श्रवण, जतिन-ललित जैसे नए संगीतकारों ने युवा आवाजों को तरजीह दी। अज़ीज़ की क्लासिकल स्टाइल अब पुरानी लगने लगी। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ उनका करीबी रिश्ता था, और उनकी मृत्यु (1990 में लक्ष्मीकांत की, 1998 में प्यारेलाल की) ने उन्हें बड़ा झटका दिया। इसके बाद अवसर कम होते गए। कुछ रिपोर्ट्स में शब्बीर कुमार के साथ उनकी प्रतिद्वंद्विता का जिक्र है, जहां शब्बीर को ‘ऑफ-की’ गाने का आरोप लगाते हुए अज़ीज़ ने समर्थन किया, लेकिन ये ज्यादा प्रभावी नहीं रही।
कई जानकार मानते हैं कि एक प्रमुख संगीतकार के साथ उनकी ‘इन्फेमस राइवलरी’ ने करियर को नुकसान पहुंचाया। हालांकि स्पष्ट नाम नहीं लिया जाता है, लेकिन लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के बाद के दौर में इंडस्ट्री पॉलिटिक्स ने उन्हें अलग-थलग कर दिया। अनु मलिक जैसे पुराने सहयोगी भी नए सिंगर्स की ओर मुड़े। 90 के दशक के अंत तक वे लाइमलाइट से दूर हो गए। भजन, प्राइवेट एल्बम और ओडिया फिल्मों में काम करते रहे, लेकिन बॉलीवुड में वापसी न हो सकी। उनकी बेटी सना अज़ीज़ भी गायिका बनीं, लेकिन पिता की तरह चमक न दिखा सकीं।
27 नवंबर 2018 को कोलकाता से मुंबई लौटते वक्त एयरपोर्ट पर कार्डियक अरेस्ट से उनका निधन हो गया। मात्र 64 साल की उम्र में ये खबर ने संगीत प्रेमियों को स्तब्ध कर दिया। शत्रुघ्न सिन्हा ने ट्वीट किया, “वर्सेटाइल सिंगर अज़ीज़ का जाना संगीत जगत के लिए बड़ा नुकसान है।” राजेश रोशन ने उन्हें “खूबसूरत इंसान” कहा। आज भी उनके गाने सुनकर लगता है कि वो आवाज कभी फीकी न पड़ेगी। लेकिन उनकी कहानी सिखाती है कि बॉलीवुड की चकाचौंध में एक गलत मोड़ सब कुछ बदल सकता है। मोहम्मद अज़ीज़ की विरासत अमर है, लेकिन उनका पतन इंडस्ट्री की क्रूरता का आईना।

